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श्रावकाचार-संग्रह सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवतरति ॥९९ हेतो प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।। १०० भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा-मोक्तुमायतेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु॥१०१ अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद् यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।।१०२ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम्। हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान्।।१०३ हिंसाया:स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघटमेव सा यस्माता ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः । १०४ नातिव्याप्तिश्चतयोःप्रमत्तयोगककरणविरोधात्।अपिकर्मानुग्रहणनीरागाणामविद्यमानत्वात्।। १०५ असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम्॥१०६ यद्वेदरागयोगान्मथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ।। १०७ हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैयुने तद्वत्।।१०८ यदपि क्रियते किञ्चिन्मदनोद्रेकादनङ्गरमणादि। तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्।।१०९ अप्रिय वचन जानना चाहिए।।९८। इन उक्त सर्वप्रकारके वचनोंमें एक प्रमत्त योग ही कारण कहागया हैं,अतः असत्य भाषणमें नियमसे हिंसा ही अवतरित होती हैं । भावार्थ-जहाँ कषाययुक्त वचन बोला जाय,वहाँ पर हिंसा अवश्य ही हैं ।।९९॥ यतः सर्व प्रकारके असत्य वचनोंका मूलकारण प्रमत्तयोग कहा गया हैं,अतः बुरे कार्यके छोडने और उत्तम कार्यके करनेके लिए बोले जाने वाले अप्रिय वचन असत्य नहीं हैं ।।१००॥ जो पुरुष भोग और उपभोगके साधनभूत सर्वप्रकारके सावद्य वचनोंको छोडनेके लिए असमर्थ है, उन्हें भी शेष सर्वप्रकारके अनृत वचन तो नित्य छोडना ही चाहिए ।।१०१।। जो प्रमत्तयोगसे दूसरेके द्वारा नहीं दिये हुए धन-धान्यादि परिग्रहका ग्रहण करना, उसे चोरी जानना चाहिए, और यह चोरी भी हिंसा ही है ; क्योंकि, वह भी दूसरोंके प्राण-घातका कारण हैं ।। १०२।। ये धन-धान्यादिक पदार्थ पुरुषोंके बाहिरी प्राण है, जो मनुष्य जिसके धनादिकको हरण करता हैं, वह उसके प्राणोंको ही हरता है ॥१०३।। हिंसाके और चोरीके अव्याप्ति दोष नहीं हैं, क्योंकि अन्यके द्वारा स्वीकृत द्रव्यके ग्रहण करने में प्रमत्तयोग स्पष्टरूपसे पाया जाता है, अत: चोरी करने में हिंसा सुघट ही हैं ॥१०४।। तथा हिंसा और चोरीमें अतिव्याप्ति दोष भी नहीं हैं,क्योंकि वीतरागी पुरुषोंके कर्म-नोकर्म वर्गणाओंके ग्रहण करने में प्रमत्तयोग नहीं पाया जाता और प्रमत्तयोगरूप एक कारणके विरोधसे हिंसाका दोष नहीं लगता,अतः कर्म-नोकर्म वर्गणाओंके ग्रहण करते हुए भी वीतरागी पुरुष चोरीके दोषसे रहित ही जानना चाहिए॥१०५)। जो पुरुष अन्यके जलाशय-कूपादिसे जलादिके ग्रहण करनेकी निवृत्ति करने के लिए असमर्थ हों,उन्हें भी अन्य सर्व प्रकारकी अदत्त वस्तुओंका परित्याग नित्य ही करना चाहिए ।।१०६॥ जो वेदनोकषायके रागयोगसे स्त्री-पुरुषों की मैथुन क्रिया होती हैं, वह अब्रह्म कहलाता है। इस मैथुन क्रियामें भी हिसा अवतरित होती हैं, क्योंकि उसमें जीव-धात सर्वत्र पाया जाता हैं ॥१०७।। जिस प्रकार तिलोंकी नालीमें तपे लोहे के डालनेसे तिल जल-भुन जाते हैं,उसी प्रकार मैथुन समय स्त्रीकी योनिमें पुरुष-लिंगके प्रवेश करनेपर योनिस्थ बहुत जीव मरणको प्राप्त होते हैं।।१०८।। इसके अतिरिक्त काम-विकारकी अधिकतासे अनंग क्रीडा आदि जो कुछ भी अवैध मैंथनके कार्य किये जाते है, उनमें भी रागादिकी उत्पत्तिके वशसे हिंसा होती ही हैं ।।१०९॥जो
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