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________________ १११ पुरुषार्थसिद्धययुपाय ये निजकलत्रमात्रं परिहर्त शक्नुवन्ति न हि मोहात्। निःशेषशेषयोषिनिषेवणं तैरपि न कार्यम्।।११० या मूर्च्छी नामेदं. विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मूछा तु ममत्वपरिणामः ।।१११ मूछीलक्षणकरणात्सुघटाव्याप्तिःपरिग्रहत्वस्यासग्रन्थोमूर्छ।वान्विनापिकिल शेषसङ्गेभ्यः ।११२ यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । __ भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूच्र्छानिमित्वम् ।। ११३ एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्धवेनैवम् । यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मच्छास्ति ।।११४ अतिसंक्षेपाद् द्विविधासभवेदाभ्यन्तरश्चबाह्यश्च प्रथमश्चतुर्दशविधोभवतिद्विविधं.द्वितीयस्तु॥११५ मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड दोषाः चत्वा श्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः॥११६ अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ निषःकदापिसङ्गः सर्वोऽप्यतिवर्ततेहिंसाम्॥११७ उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयहिंसेति । द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ॥११८ जीव मोहके उदयसे अपनी स्त्री मात्रको छोड़ने के लिए समर्थ नहीं है,उन्हें भी शेष समस्त स्त्रियोंका सेवन नहीं करना चाहिए ॥११०।। मोहके उदयसे उत्पन्न हुआ ममत्वपरिणाम मूर्छा कहलाती है और यह जो मूर्छाभाव हैं,उसे ही परिग्रह जानना चाहिए ॥१११॥ अतः जो पुरुष मूर्छावान् है, वह शेष बाह्य परिग्रहके विना भी सग्रन्थ अर्थात् परिग्रही हैं; क्योंकि परिग्रहका मूर्छा लक्षण करनेसे उसमें परिग्रहकी व्याप्ति सुघटित होती है ।।११२।। यदि ऐसा हैं,अर्थात् मूर्छा ही परिग्रह है, तो बहिरंग परिग्रह कोई भी पदार्थ नहीं माना जायगा? इस शंकाका समाधान यह हैं कि यह बाह्य पदार्थरूप परिग्रह मूर्छाके निमित्तपनेको निरन्तर धारण करता है।।११३।। भावार्थपरिग्रहके दो भेद शास्त्रों में कहे गये है-अन्तरंग परिग्रह और बाह्य परिग्रह । पर पदार्थोमें ममतारूप मूर्छाका होना यह परिग्रहका लक्षण अन्तरंग परिणामोंसे सम्बन्ध रखता है, अतः बाह्य परिग्रहका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, यदि कोई ऐसी आशंका करे तो ग्रन्थकार उसका समाधान करते है कि मूर्छाकी उत्पत्ति में धन्य-धान्यादि बाह्य पदार्थ ही निमित्त कारण होते है,अतएव कारणमें कार्यके उपचारसे बाह्य पदार्थोमें भी मूर्छा परिग्रहः'यह लक्षण घटित हो जाता हैं। यदि कहा जाय कि बाह्य पदार्थका ग्रहण करना परिग्रह हैं,तब तो वोतरागी कषाय-रहित मुनियोंके कामणवर्गणाओंके ग्रहण करनेसे परिग्रहका उक्त लक्षण अतिव्याप्ति दोषको प्राप्त होता है । ग्रन्थकार इस आशंकाका समाधान करते हुए कहते हैं कि अतः कषाय-रहित जीवोंके कर्मवर्गणाओंके ग्रहण करने में मूर्छा नहीं हैं,अत: अतिव्याप्ति दोष नहीं प्राप्त होता ॥११४।। यह परिग्रह अतिसंक्षेपसे दो प्रकारका है-आभ्यन्तर परिग्रह और बाह्य परिग्रह । इनमें प्रथम चौदह प्रकारका है और दूसरा दो प्रकारका है।। १.५।। आभ्यन्तर परिग्रहके चौदह भेद इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व,स्वीवेद,पुरुषवेद,नपुंसक वेदरूप रागभाव, तथा हास्यादि छह दोष, अर्थात्, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और क्रोध,मान, माया और लोभ ये चार कषाय ।।११६।। बाह्य परिग्रहके दो भेद है-सचित्त परिग्रह और अचित्त परित्रह। दास-दासी,गाय-भैस आदि सचित्त परिग्रह है और मकान, वर्तनादि अचित्त परिग्रह है। यह दोनों ही प्रकारका बाह्य परिग्रह कभी भी हिंसाका अतिक्रमण नहीं करता हैं, अर्थात् कोई भी परिग्रह किसी भी समय हिंसासे रहित नही है ।।११७।। अतएव जिनागमके ज्ञाता आचार्यगण दोनों ही प्रकारके परिग्रहके त्यागको अहिंसा सूचित करते है और दोनों प्रकारके परिग्रतके धारण करनेको हिंसा कहते है ॥११८॥ क्रोधादि कषाय हिंसाके पर्यायरूप है, अतः अन्तरंग परिग्रहोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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