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________________ ११२ श्रावकाचार-संग्रह हिंसापर्यायत्वासिद्धाहिंसान्तरङ्गसङ्गेषु । बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छंध हिंसात्वम् ।।११९ एवं न विशेषःस्यादुन्दररिपुहरिणशावकादीनाम् । नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्छाविशेषेण ।। १२० हरिततृणाकुरचारिणि मन्दा मृगशावके भवति मूर्छा । उन्दरनिकरोन्माथिनि मार्जारे सैव जायते तीवा ।। १२१ निर्वाध मंसिद्धयेत् कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् । औधस्य-खण्डयोरिह माधुर्यप्रीतिभेद इव।।१२२ माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्दैव मन्दमाधुर्ये । सैवोत्कटमाधुर्य खण्डे व्यपदिश्यते तीव्रा ॥ १२३ तत्त्वार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् । सम्यग्दर्शनचौरा: प्रथमकषायाश्च चत्वारः ॥१२४ प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सन्मुखायातः । नियतं हि ते कषाया: देशचरित्रं निरुन्धन्ति।।१२५ निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम् । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशोचादिभावनया॥१२६ बहिरङ्गादपि सङ्गाद्यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयंदवशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा।।१२७ योऽपिनशक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिसोऽपितनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम्। १२८ रात्री भुजानानां यस्मादनिवारिता भवतिहिंसा।हिंसाविरतस्तस्मात्त्यक्तव्यारात्रिभुक्तिरपि।।१२९ रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसा । रात्रि दिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति ।। १३० हिंसा स्वयं सिद्ध हैं। तथा बहिरंग परिग्रहोंमें मूर्छाभाव ही नियमसे हिंसापनेको प्राप्तहोताहै।।११९।। यदि कहा जाय कि ममत्व परिणामका नाम मूर्च्छी है,तब तो उदर (मूषक) का शत्रु बिलाव और हरिणके बच्चों आदिमें कोई भेद नहीं रहेगा? सो ऐसा नहीं समझना,क्योंकि उन दोनोंमें मूर्छाकी विशेषतासे बहुत भेद है ॥१२०॥ देखो-हरे तृणाङकुरोंको चरनेवाले मृगके बच्चे में मूछा बहुत मन्द होती है और चूहोंके समूहको मारकर खानेवाले बिलावमें वह मूछी अति तीव्र होती है । इसलिए दोनोंकी मूर्छा समान नहीं हैं ।।१२१।। कारणकी विशेषतासे कार्य में विशेषता निर्बाध रूपसे सिद्ध होती है । जैसे कि दूध और खांडमें मधुररसका प्रीतिभेद देखा जाता हैं।।१२२।।मन्द मधुर रसवाले दुधमें पीनेवाले पुरुषकी माधुर्यकी प्रीति मन्द होती हैं और अधिक माधुर्यवाली खांडके खाने में वह माधर्य-प्रीति तीब्र कही जाती है ।।१२३।। तत्त्वार्थके अश्रद्धामें कारण प्रथम ही मिथ्यात्व कहा गया हैं,तथा प्रथम कषाय-अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभरूप ये चार कषाय सम्यग्दर्शनरूप रत्नके चौर हैं।।१२४:। अतः इनकोछोडकरसम्यग्दृष्टिपुरुष दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषायोंको भी त्याग करके देशचरित्रके सन्मुख आता है। क्योंकि ये अप्रत्याख्यानावरण कषाय नियमके देशचारित्रका निरोध करती है,अर्थात् देशचारित्रको प्रकट नहीं होने देती है ।।१२५।। अतएव अपनी शक्तिके अनुसार मार्दव,शौच,संयम आदि धर्मोकी भावनासे शेष समस्तअन्तरंग परिग्रहोंका परिहार करना चाहिए ।।१२६।।यतः बहिरंग भी परिग्रहसे अनुचित असंयम उत्पन्न होता है, अतः सचित्त और अचित्त सभी प्रकारका बहिरंग परिग्रह भी छोड देना चाहिए। १२७।। जो पुरुष धन, धान्य, दासी दासादिक मनष्यऔरमकानसम्पदादिको छोडने के लिए समर्थ न हो, उसे भी संचित परिग्रहको कृश करना चाहिए, क्योंकि धर्मका तत्त्व तो निवृत्ति रूप ही हैं।।१२८ । यत: रात्रिमें भोजन करनेवालोंके अनिवार्य रूपसे हिंसा होती है,अतः हिंसाके त्यागी जनोंको रात्रिभोजन करना भी त्यागना चाहिए ।।१२ ॥ अनिवत्ति अर्थात् अत्यागभाव रागादिक भावोंके उदयकी उत्कृष्टतासे होता है, इसलिए वह हिंसाका अतिक्रमण नहीं करता है,तो फिर जो पुरुष रातदिन आहार करता है, उसके हिंसा कैसे नहीं संभव हैं? अर्थात् अहर्निशभोजी पुरुषके रागकी अधिकताके कारण अवश्य ही हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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