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पुराषार्थसिद्धयुपाय
यद्येवं तहि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निशायां नेत्यं भवति हिंसा ॥ १३१ नैवं वासरमुक्ते:भवतिहि रागोऽधिकोरजनिभक्तो।अन्नकवलस्यभुक्ते:भुक्ताविवमांसकवलस्य।।१३२
अर्कालोंकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम् । अपि बोधितः प्रदोघे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ।। १३३ कि वा बहुप्रलपितरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः ।।
परिहरति रात्रिभुक्ति सततहिंसां सपालयति ।। १३४ इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामा अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्तिते मुक्तिमचिरेण।।१३५
परिधय इव नगराणि प्रतानि किल पालयन्ति शीलानि ।
व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ।। १३६ प्रविधाय सुप्रसिद्धर्मादां सर्वतोऽप्यभिज्ञ न: प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्याविर तिरविचलिता।।१३७ इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्याः। सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसावतं पूर्णम् ११३८ तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनामाप्रविधाय नियतकालं करणीयंविरमणंदेशात्।।१ ९ इति विरतो बहुदेशात्तदुन्थहिंसा विशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रययहिसां विशेषेणा।१४०
पापद्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचार्याद्याः।
न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ।। १४१ हैं ।।१३०॥ यदि ऐसा हैं,तो दिन भोजनका परित्याग कर देना चाहिए और रात्रिमें भोजन करना चाहिए । इस प्रकारसे नित्य हिंसा नहीं होती हैं ।।१३१॥ ऐसा नहीं कहना चाहिए,क्योंकि दिनम भोजनकी अपेक्षा रात्रि भोजनमें रागकी अधिकता होती है जैसे कि अन्नका ग्रास खानेवालेकी अपेक्षा मांसके ग्रासको खानेवालेको अधिक राग होता हैं ।। १३२।। सूर्यके प्रकाशके बिना भोजनको करनेवाला मनुष्य हिंसाका परिहर कैसे कर सकेगा? अर्थात् नहीं कर सकेगा। यदि दीपकको जला करके रात्रिमें भोजन करेगा,तो भोज्य पदार्थमें पडे हुए सूक्ष्म जीवोंकी हिंसाको कैसे दूर कर सकेगा ॥१३३।। अधिक कहनेसे क्या लाभ हैं,जो पुरुष मन-वचन-कायसे रात्रि भोजनका परित्याग करता हैं,वह सदा ही अहिंसा-धर्मका पालन करता है ।।१३४।। इस प्रकार रत्नत्रयात्मक मोक्षके मार्गमें जो आत्म-हितके इच्छुक पुरुष निरन्तर प्रयत्न करते है,वे शीघ्र ही मुक्तिको प्राप्त करते हैं।। १३५।। जैसे परिधि अर्थात् परिकोट-परिखा) कोट-खाई)नगरकी रक्षा करते है, उसी प्रकार शोल ब्रतोंकी रक्षा करते है । अतः ग्रहण किये गये अहिंसादि व्रतोंके परिपालनके लिए गुणव्रत और शिक्षाव्रतरूप सात शीलोंको भी पालन करना चाहिए ॥१२६।। सुप्रसिद्ध सीमा-सूचक चिन्होंके द्वारा सर्व ओर मर्यादाको करके पूर्वादिक दशों दिशाओसे अविचलित (दृढ) विरति (प्रतिज्ञा) करनी चाहिए ।।१३७।। इस प्रकार मर्यादित दिशाओंके विभागमें ही जो पुरुष गमनागमन रूप प्रवृत्ति करता हैं, उस पुरुषके नियमित सीमाके बाहिर सकल असंयमभावके अभाव होनेसे अहिंसाव्रत पूर्णताको प्राप्त होता हैं । यह दिग्विरति नामक गुणव्रत हैं।।१८।।उस दिग्ब्रतमें भी ग्राम,आपण (बाजार) भवन
और मोहल्ला आदिका नियत काल तक परिमाण करके शेष देशसे विरमण अर्थात् गमनागमनका त्याग करना चाहिए। यह देशविरति नामक गुणवत हैं ।।१३९।। इस प्रकार बहुत प्रदेशसे विरत वह निर्मल बुद्धिवाला श्रावक उस नियमित काल में उस मर्यादित क्षेत्रसे बाहिर उत्पन्न होनेवाली हिंसाविशेषके परिहारसे विशेषतया अहिंसाको आश्रय करता है । अर्थात् नियतकाल तक मर्यादित क्षेत्रसे बाहिर गमनागमन न करनेसे वह वहाँ पर पूर्ण अहिंसाव्रती जैसा होता हैं ।।१४०।। अब अनर्थदण्ड
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