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श्रावकाचार - संग्रह
हिरण्यवृष्टि धनदे प्राक् षण्मासान् प्रवर्षति । अन्वायान्त्यामिवानन्दात् स्वर्गसम्पदि भूतलम् ॥२१८॥ अमृत वसने मंदमवाति व्याप्तसौरमे । भूद्देव्या इव निःश्वासे प्रक्लृप्ते पवनामरैः ।। २१९ ।। दुन्दुभिध्वनिते मंद्रमुत्थिते पथि वार्मुचाम् । अकालस्तनिताशङ्कामतन्वति शिखण्डिनाम् ॥ २२० ॥ मन्दाराज मम्लानिममोदाहृतषट्पदाम् । मुञ्चत्सु गुह्यकाव्येषु निकायेष्वमृताशिनाम् ॥ २२१ ॥ देवीषूपचरन्तीषु देवीं भुवनमातरम् । लक्ष्म्या समं समागत्य श्री ही धीधृतिको तिषु ॥ २२२ ॥ कस्मिश्चित् सुकृतावासे पुण्ये राजवमंदिरें । हिरण्यगर्भो धत्तंऽसौ हिरण्योत्कृष्टजन्मताम् ॥२२३॥ हिरण्यसूचितोत्कृष्ट जन्यत्वात् स तथा श्रुतिम् । बिभ्राणां तां क्रियां धत्ते गर्भस्थोऽपि त्रिबोधभृत् ॥ २२४ ( इति हिरण्यजन्मता | ) विश्वेश्वरी जगन्माता महादेवी महासती । पूज्या सुमङ्गला चेति धत्ते रूढ़ि जिनाधिका ॥२२५॥ कुलाद्विनिलया देव्य: श्री न्ही धीधृतिकीर्तयः । समं लक्ष्म्या षडेताश्च सम्मता जिनमातृकाः ।। २२६ ।। जन्मानंतर मायातैः सुरेन्द्र मेंरुम्र्द्धनि । योऽभिषेक विधिः क्षीरपयोधेः शुचिभिर्जलैः ||२२७|| मन्दरेन्द्राभिषेकisit क्रियाऽस्य परमेष्ठिनः । सा पुनः सुप्रतीतत्वाद् भूयो नेह प्रतन्यते ॥ २२८ ॥ ( इति मन्दरेन्द्राभिषेकः ) ततोऽविद्योपदेशोऽस्य स्वतन्त्रस्य स्वयं मुवः । शिष्य मावव्यतिक्रान्तिः गुरुपूजोपलम्भनम् ॥ २२९॥ तीर्ण होता है || २१७ || गर्भ में आनेके छह मास पूर्व से ही कुबेर जननी के घर पर हिरण्यवृष्टि करता हैं, उस समय ऐसा जान पडता हैं मानो आनन्दसे स्वर्गकी सम्पदा ही भगवान् के साथ इस भूतल पर आ रही है | २१८ | उस समय अमृतके समान सुखदायक मन्द मन्द पवनके भूलोक में व्याप्त होनेसे ऐसा जान पडता हैं मानों वायुकुमार देवोंके द्वारा निर्माण किया हुआ भूदेवोका निःश्वास ही हैं ॥ २१९ ॥ जब आकाशमें बजते हुए दुंदुभियोंकी गम्भीर ध्वनिके फैलने से असमयमें ही मयूरोंको मेघोंके गरजने की आशंका हो रही हो, जब यक्ष जातिके देवोंके समूह कभी नहीं मुरझानेवाली और सुगन्धिसे भौरोंको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली कल्पवृक्षोंके फूलो की मालाएँ आकाशसे बरसा रहे हों, एवं जब श्री, ही, बुद्धि, धृति और कीर्ति नामकी देवियाँ लक्ष्मीदेवी के साथ आकर जगन्माता महादेवीकी स्वयं सेवा उपचारकर रही हो उस समय पुण्यके आवासवाले किसी पुण्यवान् राजर्षिके राजमन्दिर में वे हिरण्यगर्भ भगवान् हिरण्योत्कृष्ट जन्मको धारण करते है २२०२२३ || जो गर्भ में रहते हुए भी मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानके धारक हैं, ऐसे वे भगवान् हिरण्य (सुवर्ण) की वर्षांसे जन्म की उत्कृष्टता सूचित होनेके कारण 'हिरण्योत्कृष्टजन्म' इस सार्थक नामको धारण करनेवाली क्रियाको प्राप्त होते हैं ||२२४ ॥ यह उनतालीसवी हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया हैं । उस समय जिन भगवान्की माता विश्वेश्वरी, जगन्माता, महादेवी, महासती, पूज्या और सुमंगला इत्यादि नामोंको धारण करती हैं ||२२५ ॥ कुलाचलों पर रहनेवाली श्री, न्ही, 'बुद्धि, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी ये छह देवियाँ जिनमातृका अर्थात् जिनभगवान्की माताकी सेविका मानी गई हैं ।।२२६।। जिनभगवान्का जन्म होनेके अनन्तर स्वर्गलोकसे आये हुए सुरेन्द्र के द्वारा सुमेरुके शिखरपर क्षीरसागरके पवित्र जलसे जो भगवान्की अभिषेकविधि की जाती हैं, वह उन परमेष्ठीकी मन्दरेन्द्राभिषेक क्रिया हैं । यह क्रिया सुविज्ञात होनेसे पुनः यहाँ पर नही कही जा रही हैं ॥२२७-२२८।। यह चालीसवी मन्दराभिषेक क्रिया हैं । तदनन्तर उस स्वतन्त्र स्वयम्भू भगवानको किसीके द्वारा विद्याओं का उपदेश नही दिया जाता हैं । वे किसी गुरुका शिष्यत्व स्वीकार किये बिना ही गुरुपदकी पूजाको प्राप्त होते हैं ॥२२९॥ उस समय इन्द्र लोग आकर इस लोक त्राता त्रिजगद्गुरुकी पूजा
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