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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म - वर्णन केचिच्चमूचरस्थाने केचिच्च स्वजनास्थया । प्रजासामान्यमन्ये च केचिच्चानुचराः पृथक् ॥ २०७॥ केचित् परिजनस्थाने केचिच्चान्तः पुरे चरा । काश्चिद् वल्लभिका देव्यो महादेव्यश्च काश्चन ॥ २०८ इत्यसाधारणा प्रीतिर्मया युष्मासु दर्शिता । स्वामिभक्तिश्च युष्माभिर्मय्यसाधारणी धृता ॥ २०९ ।। साम्प्रतं स्वर्ग भोगेषु गतो मन्देच्छतामहम् । प्रत्यासन्ना हि मे लक्ष्मीरद्य भूलोकगोचरा ।। २१० ॥ युष्मत्साक्षिततः कृत्स्नं स्वः साम्राज्यं मयोज्झितम् यश्चान्यो मत्समो भावी तस्मै सर्व समर्पितम् ॥ २११ इत्यनुत्सुकतां तेषु भावयन्ननुशिष्य तान् । कुर्वन्निन्द्रपदत्यागं स व्यथां नैति धीरधीः ॥ २१२ ॥ इन्द्रत्यागक्रिया सैषा तत्स्वर्भोगातिसर्जनम् । धोरात्यजन्त्यनायासादैश्यं तादृशमप्य हो ।। २१३ ॥ ( इति इन्द्रत्याग: । ) अवतारक्रियास्यान्या ततः संपरिवर्तते । कृतार्हत्पूजनस्यान्ते स्वर्गांदवतरिष्यतः || २१४ || सोऽयं नृजन्मसंप्राप्त्या सिद्धि द्रागभिलाषुकः । चेतः सिद्धनमस्यायां समाधत्ते सुराधिराट् ॥ २१५ ॥ । शुभैः षोडशभिः स्वप्नं संसूचितमहोदयः । तदा स्वर्गावताराख्यां कल्याणीमश्नुते क्रियाम् । २१६।। ( इति इन्द्रावतार: । ) ४७ ततोऽवतीर्णो गर्भेऽसौ रत्नगर्भगृहोपमे । जनयित्र्या महादेव्या श्रीदेवीविशोधिते ॥ २१७ ॥ पद पर नियुक्त किया हैं ।। २०६ ।। कितने ही देवोंको सेनापतिके स्थान पर नियुक्त किया हैं और कितनों ही को अपने परिवार के लोगोंके समान समझा हैं। कितने ही देवोंको सामान्य प्रजाके समन माना और कितनों ही को पृथक रूपसे अनुचर नियुक्त किया ।। २०७ ।। कितने ही देवोंको परिजनके समान कुटुम्बी माना और कितनों को ही अन्तःपुर-चारी बनाया । कितनी ही देवियों को वल्लभकामाना और कितनी ही देवियोंको महादेवीके पद पर नियुक्त किया ।। २०८ ।। इस प्रकार से मैंने तुम लोगों में असाधारण प्रीति दिखाई और तुम लोगोंने भो मेरे पर असाधारण स्वामिभक्ति प्रकट की है ।। २०९ ।। इस समय स्वर्ग के भोगों में मेरी इच्छा मन्द हो गयी हैं और निश्चय ही भूलोक-सम्बन्धी लक्ष्मी मेरे समीप आ रही हैं ।। २१० ।। इसलिए आज तुम लोगोंकी साक्षीपूर्वक यह समस्त स्वर्गका साम्राज्य में छोड रहा हूँ और जो मेरे समान ही अन्य इन्द्र होने वाला हैं, उसके लिए यह समर्पण कर रहा हूँ ।। २११ ।। इस प्रकारसे उन सब देवोंमें अपनी अनुत्सुकता या उदासीनता की भावना करता हुआ वह धीर बुद्धिवाला इन्द्र उन सब देवोंको शिक्षा देकर इन्द्रपदका त्याग करता हुआ किसी प्रकारकी व्यथाको नहीं प्राप्त होता हैं अर्थात् सहर्ष इन्द्र पदका त्याग करता हैं ।। २१२ ।। इस प्रकार उन स्वर्गीय भोगोंका परित्याग करना, यह इन्द्रत्याग क्रिया कहलाती हैं । अहो, यह आश्चर्य हैं कि धीर वीर पुरुष अनायास ही उस प्रकारके भी परम ऐश्वर्यको सहज में छोड़ देते है ।। २१३ ।। यह सैंतीसवीं इन्द्रत्याग क्रिया हैं तदनन्तर जीवन के अन्त में अरहन्त देवकी पूजन करके स्वर्गसे अवतरित होने वाले उस इन्द्रके यह अन्य अवतार किया प्रवृत्त होती हैं ।। २१४ ॥ अभी तक इन्द्र पदका धारक मैं मनुष्यजन्म पाकर अतिशीघ्र सिद्धि ( मुक्ति लक्ष्मी) का अभिलाषी हुआ हूँ, यह विचार कर वह देवों का अधिराज इन्द्र अपना चित्त सिद्ध भगवान्‌को नमस्कार करनेमें लगाता हैं । २१५ || तब वह इन्द्र शुभ सोलह स्वप्नोंके द्वारा ( भावी माता-पिताको ) अपना महान् उदय सूचित करता हुआ स्वर्गावतार नामकी कल्याणकारिणी क्रिया को प्राप्त होता हैं ॥ २१६ ॥ यह अडतीसवीं इन्द्रावतार किया हैं । तदनन्तर वह इन्द्र जन्म देने वाली महादेवीके श्री ही आदि देवियोंके द्वारा संशोधित और रत्नोंके गर्भगृहके समान गर्भ में अव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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