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________________ ४६ श्रावकाचार - संग्रह दिव्य सङ्गीतवादित्रमङ्गलोद्गीतिनिःस्वनः । विचित्रैश्चाप्सरोनृत्तैः निवृत्तेन्द्राभिषेचनः ।। १९६ ॥ किरीटमुद्रहन् दी स्वसाम्राज्यैकलाञ्छनम् । सुरकोटिभिरारूढप्रमदैर्जयका रितः ॥ १९७॥ arat सदंशुको दीप्तः भूषितो दिव्यभूषणं : ऐन्द्रविष्टरमारूढो महानेष महीयते ॥ १९८ ॥ ( इति इन्द्राभिषेकः । ) ततोऽयमानतानेतान् सत्कृत्य सुरसत्तमान् । पदेषु स्थापयन् स्वेषु विधिदाने प्रवर्तते ।। १९९ । । ) स्वविमानद्वदानेन प्रीणितविबुधैर्वृतः । सोऽनुभुङ्क्ते चिरं कालं सुकृती सुखमामरम् ॥। २०० ।। तदेतद्विधिदानेन्द्र सुखोदयविकल्पितम् । क्रियाद्वयं समाम्नातं स्वर्लोकप्रभवोचितम् ॥ २०२॥ ( इति विधिदान सुखोदयौ । ) प्रोक्तास्त्विन्द्रोपपादाभिषेकदान सुखोदयाः । इन्द्रत्यागाख्यामधुना संप्रवक्ष्ये क्रियान्तरम् ॥ २०२ ॥ fiefचन्मात्रावशिष्टायां स्वस्यामायुः स्थितौ सुरेट् बुद्ध्वा स्वर्गावतारं स्वं सोऽनुशास्त्यमरा - निति ॥ २०३ ॥ भो भोः सुधाशना यूयअस्माभिः पालिताश्चिरम्। केचित् पित्रीयिताः केचित् पुत्रप्रीत्योपलालिताः।। २०४ पुरोधमन्त्र्यमात्यानां पदे केचिन्नियोजिताः । वयस्यपीठमर्दीयस्थाने दृष्टाश्च केचन || २०५ ॥ स्वप्राणनिविशेषञ्च केचित् त्राणाय सम्मताः । केचिन्मान्यपदे दष्टाः पालकाः स्वनिवासिनाम् ॥ २०६ उस इन्द्रका उत्तम देवगण इन्द्राभिषेक करते हैं ।। १९५ ।। दिव्य संगीत, वादित्र और मंगलगीतों के शब्दोंसे और अप्सराओंके नाना प्रकार के नृत्योंसे इन्द्रका अभिषेक सम्पन्न होता हैं || १९६ ।। तदनन्तर वह अपने साम्राज्य के अद्वितीय चिन्ह स्वरूप देदीप्यमान मुकुटको धारण करता हैं । उस समय आनन्दको प्राप्त करोडो देवगण उसका जय-जयकार करते हैं । । १९७ ।। उस समयवह दिव्य मालाको और दिव्य उत्तम वस्त्रोंको धारणकर तथा देदीप्यमान दिव्य आभूषणोंसे विभूषित होकर इन्द्रासन पर आरूढ होकर महान् महिमाको प्राप्त होता है ।। १९८ ।। यह चौतीसवीं इन्द्राभिषेक क्रिया है । तदनन्तर नमस्कार करते हुए उन उत्तम देवोंको अपने अपने पदो पर स्थापित करता हुआ वह इन्द्र विधिदान क्रियामें प्रवृत्त होता है, अर्थात् आज्ञानुसारी सर्व देवोंको अपने-अपने पदो पर नियुक्त करना ही विधिदान क्रिया कहलाती हैं ।। १९९ ।। अपने-अपने विमानोंकी ऋद्धियोंके देने से अति प्रसन्न हुए देवोंके द्वारा वेष्टित हुआ वह सौभाग्यभाली इन्द्र चिरकाल तक देव लोकके सुखोंको भोगता हैं ॥ २०० ॥। इस प्रकार स्वर्ग लोकमें किये जानेके योग्य ऐसी ये विधिदान और इन्द्र सुखोदय भेदवाली दो क्रियाएँ कही गयी है ।। २०१ ।। यह पैंतीसवीं विधिदान और छत्तीसवीं सुखोदय क्रिया है । इस प्रकार इन्द्रोपपाद, इन्द्राभिषेक, विधिदान और सुखोदय, ये इन्द्रसम्बन्धी चार क्रियाएँ कही । अब इन्द्रत्याग नामकी अन्य क्रियाको कहते है ॥ २०२ वह इंद्र अपनी आयुकी स्थिति के किंचिन्मात्र अवशिष्ट रह जाने पर अपना स्वर्गसे अवतरण जानकर देवलोकों को इस प्रकारसे समझाता है ।। २०३ ।। भो भो अमृत भोजी देव लोगो, हमने तुम्हें चिरकाल तक पाला है, कितने ही देवोंको पिताके तुल्य माना हैं, कितने ही देवोंका पुत्रके समान प्रेमसे लालन-पालन किया हैं ॥ २०४॥ कितने ही देवों को पुरोहित, मंत्री और अमात्य के पद पर नियुक्त किया हैं, कितने ही देवोंको मैंने मित्र के समान देखा हैं और कितनो ही को अपने समान माना है । २०५ ॥ कितने ही देवों को अपने प्राणों के समान मानकर उन्हें अपने शरीरकी रक्षा के लिए नियुक्त किया है और कितनों हीको स्वर्ग-निवासियोंकी रक्षा के लिए सम्मान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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