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महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन यतिमाधाय लोक ने नित्यानन्तसुखास्पदे । भावयेद् योगनिर्वाणं स योगी योगसिद्धये ॥ १८५॥
(इति निर्वाणसम्प्राप्तिः। ) ततो नि शेषमाहारं शरीरं च समुन्सुजन् । योगीन्द्रो योगनिर्वाणसाधनायोद्यतो भवेत् ॥ १८६ ।। उत्तमार्थे कृतास्थानः संन्यस्ततनुरुद्धधीः । ध्यायन् मन वच कायान बहिर्भूतान् स्वकान् स्वतः ।।१८७ प्रणिधाय मनोत्ति पदेष परमेष्ठिनाम् । जीवितान्ते स्वस कुर्याद् योगनिर्बाणसाधनम् ॥ १८८ ॥ योग: समाधिनिर्वाणं तत्कृता चित्तनिर्वृतिः । तेनेष्टं साधनं यत्तद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥ १८९ ।।
( इति योगनिर्वाणसाधनम् ।) तथा योग समाधाय कृतप्राणविसर्जनः । इन्द्रोपपादमाप्नोति गते पुण्य पुरोगताम् । १९० ।। इन्द्रा:स्युस्त्रिदशाधीशाः तेषूत्पादस्तपोबलात् । यः स इन्द्रोपपादः स्यात् क्रियाऽर्हन्मार्गसेविनाम्॥१९१ ततोऽसौ दिव्यशय्यायां क्षणादापूर्णयौवनः । प.मानन्दसाभतो दीप्तो दिव्येन तेजसा ।।१९२॥ अणिमादिभिरष्टाभि: युतोऽसाधारणगुणः । सहजाम्बरदिव्यस्रङ् मणिभूषणभूषितः ।। १९३ ।। दिव्यानुभावसंभूतप्रभावं परमहन् । बोबध्यते तदाऽत्मीयमैन्द्रं दिव्यावधित्विषा ॥ १९४ ।।
( इति इन्द्रोपपादक्रिया।) पर्याप्तमात्र एवायं प्राप्तजन्मावबोधनः । पुनरिन्द्राभिषकेण योज्यतेऽमरसत्तमैः ॥ ५९५ ॥ धाम लोकके अग्रभाग (सिद्धस्थान) पर अपनी बुद्धिको लगाकर योगनिर्वाणकी भावना भावे । अर्थात् उस योगीको सर्व ओरसे अपना चित्त हटाकर एकमात्र मोक्ष-प्राप्तिकी ही भावना करना चाहिये ।। १८५ ।। यह इकतीसवीं योगनिर्वाणसम्प्राप्ति क्रिया हैं । तदनन्तर वह योगीन्द्र समस्त प्रकारके आहारको और शरीरको त्यागकर योगनिर्वाणके साधनके लिए समुद्यत होवे ।। १.८६ ।। उत्तम मोक्ष पुरुषार्थमैं आस्था रखनेवाला तथा संन्यास धारणकर देहसे आत्मबुद्धिको दूर करनेवाला वह योगिराज, मन,वचन,कायको अपनेसे भिन्न चिन्तवन करता हुआ और पंचपरमेष्ठियोंके चरणोंमें अपनी मनोवृत्तिको निश्चल करके जीवनके अन्त समयमें योगनिर्वाणके साधनको आत्मसात करे ।।१.८७-१.८८।। योग नाम समाधिका है, उस समाधिके द्वारा चित्तकी जो निराकुलतारूप वृत्ति होती हैं,उसे निर्वाण कहते है । उस योगनिर्वाणके द्वारा जो इष्ट मोक्षका साधन होता है,उसे योगनिर्वाणसाधन कहते हैं ।। १.८९ ।। यह बत्तीसवीं योगनिर्वाणसाधन क्रिया है । उपर्युक्त प्रकारसे मनवचन-कायरूप थोगोंका समाधान करके अपने प्राणोंका विसर्जनकर पुण्यके पुरोगामी होनेपर वह इन्द्रोंमें उत्पन्न कराने वाली इन्द्रोपपाद क्रियाको प्राप्त होता है ।। १९० ।। देबोंके स्वामी इन्द्र कहलाते हैं । तपोबलसे उनमें जो उपपाद (जन्म) होता हैं, उसे इन्द्रोपपाद कहते है। यह इन्द्रोपपाद क्रिया अर्हत्प्रणीत मोक्षमार्गका सेवन करनेवाले जीवोंके ही होती हैं ॥ १९१ ।। समाधिसे मरणको प्राप्त हुआ वह योगिराज इन्द्रपदमें उत्पन्न होने के पश्चात् उसी दिव्य उपपादशय्यापर क्षण भरमें पूर्ण युवावस्थाको प्राप्त हो जाता है और दिव्य तेजसे देदीप्यमान होता हुआ परमआनन्दमें निमग्न हो जाता हैं ।। १९२ ।। अणिमा महिमा आदि आठ असाधारण गुणोसे संयुक्त होकर वह जन्मके साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य वस्त्र, माला और मणिमय आभूषणों से विभूषित हो जाता है ।।१९३।। तब देवलोक के दिव्य माहात्म्य से उत्पन्न हुए महा प्रभावको धारण करता हुआ वह इन्द्र दिव्य अवधिज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा जान लेता हैं कि मैं इन्द्र पदमें उत्पन्न हुआ हूँ। १९४ ।। यह इन्द्रोपपाद नामकी तेतीसवीं क्रिया हैं । पर्याप्तियोंके पूर्ण होते ही जिसे अपने जन्मका ज्ञान प्राप्तहुआ हैं ऐसे
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