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________________ महापुराणान्तर्गढ श्रावकधर्म-वर्णन ४९ तदेन्द्राः पूजयन्त्येनं त्रातारं त्रिजगद्गुरुम् । अशिक्षितोऽपि देवत्वं सम्मतोऽसीति विस्मिताः ।। २३० ( इति गुरुपूजनम् । ) तत: कुमारकालेऽस्य यौवराज्योपलम्भनम् । पट्टबन्धोऽभिषेकश्च तदास्य स्यान्महौजसः ।। २३१ ___(इति यौवराज्यम् ।) स्वराज्यमधिराज्येऽभिषिक्तस्यास्याक्षितीश्वरैः । शासतः सार्णवामेनां क्षितिमप्रतिशासनाम् ।।२३२ ( इति स्वराज्यम् ।) चक्रलाभो भवेदस्य निधिरत्न समुद्भवे । निजप्रकृतिभिः पूजा साभिषेकाऽघिराडिति ॥ २३३ (इति चक्रलाम:।) दिशाजयः स विज्ञेयो योऽस्य दिग्विजयोद्यमः । चक्ररत्नं पुरस्कृत्य जयतः सार्णवां महीम् ।। २३४ ( इति दिशाञ्जयः ।) सिद्धदिग्विजयस्यास्य स्वपुरानुप्रवेशने । क्रिया चक्राभिषेकान्हा साऽधुना सम्प्रकीयते ।। २३५ चक्ररत्नं पुरोधाय प्रविष्टः स्वनिकेतनम् । परायविभवोपेतं स्वविमानापहासि यत् ।। २३६ तत्र क्षणमिवासीने रम्ये प्रमदमण्डपे । चामरैर्वीज्यमानोऽयं सनिर्झर इवाद्रिराट् ॥ २३७ सम्पूज्य निधिरत्नानि कृतचक्रमहोत्सवः । दत्वाकिमिच्छकं दानं मान्यान् सम्मान्य पार्थिवान् ।।२३८ . ततोऽभिषेकमाप्नोति पार्थिवैमहितान्वयैः । नान्दीतूर्येषु गम्भीरं प्रध्वनत्सु सहस्रशः ।। २३९ यथावदभिषिक्तस्य तिरीटारोपणं ततः । क्रियते पार्थिवैर्मुख्यः चतुभिः प्रथितान्वयैः ।। २४० करते है और विस्मित होते हुए कहते हैं कि हे देव, तुम किसीके द्वारा शिक्षित नहीं होनेपर भी सबके द्वारा गुरु रूपसे सम्मान्यको प्राप्त हुए हो ।। २३० ।। यह इकतालीसबी गुरुपूजन क्रिया हैं। तदनन्तर कुमारकालके प्राप्त होनेपर उन्हें युवराजका पद प्राप्त होता हैं। उस समय उन महातेजस्वी भगवान्का पट्टबन्ध और अभिषेक किया जाता है ।। २३१ ।। यह बियालीसवीं यौवराज्य क्रिया है। तदनन्तर राजा लोग आकर इनको महाराजके पदपर स्थापित करके राज्याभिषेक करते है और भगवान् अन्यके शासनसे रहित इस समुद्रान्त पृथिवीका एकछत्र शासन करते हुए स्वराज्यको प्राप्त होते हैं ।। २६२ ।। यह तेतालीसवीं स्वराज्य प्राप्ति क्रिया है । तत्पश्चात् नौ निधियों और चौदह रत्नोंके प्राप्त होनेपर उनके चक्ररत्नकी प्राप्ति होती है । उस समय सारी प्रजा उन्हें राजाधिराज मानकर उनकी अभिषेकके साथ पूजा करती है ।। २३३ ।। यह चवालीसवीं चक्ररत्न क्रिया है। तदनन्तर चक्ररत्नको आगे करके सागरान्त समस्त पृथिवीको जीतनेवाले उन तीर्थकर भगवान्का जो दिग्विजय करनेके लिए उद्यम होता हैं, उसे दिशाजय जानना चाहिए ।। २३४ ।। यह पैतालीसवीं दिशांजय क्रिया है । जब तीर्थंकर भगवान् दिग्विजयको सिद्ध करके अपने नगरमें प्रवेश करते हैं, उस समय चक्राभिषेक नामकी क्रिया होती है, अब उसे कहते है ।। २३५॥ वे चक्रवर्ती तीर्थकर चक्ररत्नको आगे करके बहुमूल्य वैभवसे संयुक्त,स्वर्गके विमानोंका उपहास करनेवाले अपने राजभवन में प्रवेश करते हैं । २३६ ।। वहां परमरम्य आनन्द मंडपमें विराजमान होनेपर जब उनके ऊपर चँवर ढुलाये जाते हैं उस समय वे निर्झरनोंसे युक्त पर्ततराज सुमेरुके सदृश प्रतीत होते हैं ।। २३७ ।। उस समय वे निधियों और रत्नोंकी पूजाकर चक्ररत्न पानेका महान् उत्सव करते हैं और किमिच्छक दान देकर माननीय राजाओंका सन्मान करते हैं ।। २३.८ ।। तदनन्तर सहस्रों माँगलिक बादित्रोंकी गम्भीर ध्वनि होनेपर वे पूज्य कुलोत्पन्न राजाओंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होते हैं ॥ २३९ ।। तदनन्तर यथाविधि अभिषिक्त उनके मस्तकपर प्रसिद्ध वंशवाले चार प्रमुख राजाओंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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