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श्रावकाचार-संग्रह
महाभिषेकसामग्र्या कृतचक्राभिषेचनः । कृतमङ्गलनेपथ्यः पार्थिवैः प्रणितोऽभितः ॥ २४१ तिरीटं स्फुट रत्नांशु जटिलीकृतदिग्मुखम् । दधानश्चक्रसाम्राज्यककुदं नूपपुङ्गवः ।। २४२ रत्नांशुच्छुरितं बिभ्रत् कर्णाभ्यां कुण्डलद्वयम् । यद्वागदेव्याः समाक्रीडारथचऋद्वयायितम् ॥ २४३ तारालितरलस्थूलमुक्ताफलमुरोगृहे । धारयन् हारमाबद्धमिव मङ्गलतोरणम् ।। २४४ विलसद् ब्रह्मसूत्रेण प्रविभक्ततनन्नतिः । तटनिर्झरसम्पातरम्यतिरिवाद्रिपः ॥ २४५ सद्रत्नकटकं प्रोच्च शिखरं भुजयोर्युगम् । द्वाघिमश्लाघि बिभ्राणः कुलक्ष्माध्रद्वयायितम् ॥ २४६ कटिमण्डलसंसक्तलसत्काञ्चीपरिच्छदः । महाद्वीप इवोपान्तरनवेदोपरिष्कृतः ।। २४७ मन्दारकुसुमामोदलग्नालिकुलझंकृतैः । किमप्यारघ्रसङगीतमिव शेखरमुद्वहन् ॥ २४८ तत्कालोचितमन्यच्च दधन्मङ्गलभूषणम् । स तदा लक्ष्यते साक्षाल्लक्षम्या: पुञ्ज इवोच्छिखः।।२४९ प्रीताश्चाभिष्टुवन्त्येनं तदामी नृपसत्तमाः । विश्वञ्जयो दिशाजेता दिव्यमूतिर्भवानिति ।। २५० पोराः प्रकृतिमुख्याश्च कृतपादाभिषेचनाः । तत्कमार्चनमादाय कुर्वन्ति स्वशिरोधृतम् ।। २५१ श्रीदेव्यश्च सरिद्देव्यो देव्यो विश्वेश्वरा अपि । समुपेत्य नियोगैः स्वैस्तदैनं पर्युपासते ।। २५२
(इति चक्राभिषेक: ) द्वारा मुकुट रक्खा जाता है ।। २४० । इसप्रकार महाभिषेककी सामग्रीसे जिनका चक्राभिषेक किया गया हैं, जिन्होंने मांगलिक वेश-भूषा धारण की है, जिन्हें सर्व ओरसे राजालोग नमस्कार कर रहे हैं ।। २४१ ।। जो स्फुरायमान रत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले,तथा चक्रवर्तीके साम्राज्यके चिन्हस्वरूप मुकुटको धारणकर रहे है, जो राजाओंमें सर्वश्रेष्ठ है ।। २४२।। जो दोनों कानोंमें रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त तथा सरस्वतीके क्रीडा-रथके दोनों नकोंकी शोभाके समान प्रतीक होनेवाले दो कुण्डलोंको धारणकर रहे हैं ।। २४३ ॥ जो वक्षस्थलरूप गृहके द्वारपर बँधे मांगलिक तोरणके समान प्रतीत होनेवाले और ताराओंकी पंक्तिके समान चंचल स्थूल मोतियोंवाले हारको धारण किये हुए हैं ।।२४४।' शोभायमान ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) से जिनके शरीरकी उच्चता प्रकट हो रही हैं, अत एव जो तटपर गिरते हुए निर्झरनोंसे सुरम्य मूत्ति सुमेरुगिरिके सदृश प्रतीत हो रहे हैं ।। २४५ ।। जो उत्तम रत्नमय कटक मुक्त, उन्नत शिखरवाले विशाल एवं प्रशंसनीय भुजायुगलको धारण करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं,मानों दो कुलाचलोंको ही धारणकर रहे है। क्योंकि कुलाचलोंके कटक भाग रत्न-जडित होते हैं, उनके शिखर उन्नत होते हैं,वे अतिदीर्घ और विशाल होते हैं ॥ २४६ ।। कटि-मंडलपर सटी हुई शोभायमान करधनीको पहिने हुए वे भगवान् समीपवर्ती रत्नमय वेदिकासे घिरे हुए महाद्वीपसे मालूम पडते हैं ।।२४७॥ मन्दारकल्पवृक्षके पुष्पोंकी सुगंधिसे आकृष्ट होकर संलग्न भौरोंके समूहकी झंकारोंसे कुछ संगीत-गान करते हुए के समान सुन्दर शेखरको धारण कर रहे है ।। २४८॥ उस समय चक्राभिषेक-कालके उचित अन्य भी मांगलिक आभषणोंको धारण करते हुए वे भगवान् उन्नत शिखावाले साक्षात् लक्ष्मीके पुंजके ही समान प्रतीत होते हैं ॥ २४९ ॥ उस समय अति प्रीतिको प्राप्त श्रेष्ठ राजा लोग उनकी इस प्रकार स्तुति करतेहै-भगवन् आप विश्वविजयी हैं, दिग्विजेता हैं और दिव्यमूत्ति हैं ॥ २५० ॥ पुर-वासी लोग तथा अन्य प्रमुख पदाधिकारी गण उनके चरणोंका अभिषेक करते है और उनके चरण-चित जल को लेकर अपने अपने शिरोंपर धारण करते हैं ।। २५१ ॥ उस समय श्री,न्ही आदि कुमारिका देवियाँ, गंगा-सिन्ध आदि सरिदेवियाँ, तथा विश्वेश्वरा आदि अन्य अनेकों देवियाँ आ-आकर अपने अपने नियोगोंके
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