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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन चक्राभिषेक इत्येकः समाख्यातः क्रियाविधिः । तदनन्तरमस्य स्यात् साम्राज्याख्यं क्रियान्तरम्।।२५३ अपरेधुदिनारम्भे धृतपुण्यप्रसाधनः । मध्ये महानृपसभं नृपासनमधिष्ठितः ।। २५४ द्रीप्रैः प्रकीर्णकवातैः स्वर्धनीसीकरोज्वलैः । वारनारीकराधूतैर्वीज्यमानः समन्ततः ।। २५५ सेवागतैः पृथिव्यादिदेवतांशः परिष्कृतः । धृतिप्रशान्तदीप्त्योजो निर्मलत्वोपमादिभिः ।। २५६ तान् प्रजानुग्रहे नित्यं समाधानेन योजयन् । सम्मानदानविश्रम्भैः प्रकृतीरनरञ्जयन् ॥ २५७ पाथिवान् प्रणतान् यूयं न्यायैः पालयत प्रजाः । अन्यायेषु प्रवृत्ताश्चेद् वृत्तिलोपो ध्रुवं हि वः ।।२५८ न्यायश्च द्वितयो दुष्टनिग्रहः शिष्टपालनम् । सोऽयं सनातनः क्षात्रो धर्मो रक्ष्यः प्रजेश्वरः ॥२५९ दिव्यास्त्रदेवताश्च मूराराध्याः स्यु विधानतः । ताभिस्तु सुप्रसन्नाभिरवश्यं भावुको जयः ।। २६० राजवृत्तिमिमां सम्यक् पालयद्भिरतन्द्रितैः । प्रजासु वतितव्यं भो भवद्भिर्यायवर्त्मना ।। २६१ पालयद्य इम धर्म स धर्मविजयी भवेत् । क्ष्मां जयेत् विजितात्मा हि क्षत्रियो न्यायजीविकः।।२६२ इहैव स्याद् यशोलाभो भूलाभश्च महोदयः । अमुत्राभ्युदयावाप्तिः क्रमात् त्रैलोक्यनिर्जयः ।। २६३ इति भूयोऽनुशिष्यतान् प्रजापालनसंविधौ । स्वयं च पालयत्येनान योगक्षेमानुचिन्तनैः ।। २६४ । अनुसार भगवान् की उपासना करती है ।। २५२ । यह छियालीसवीं चक्राभिषेक क्रिया हैं। इस प्रकार यह अद्वितीय चक्राभिषेक क्रियाकी विधि कही । अब इसके पश्चात् साम्राज्य नामकी अन्य क्रियाको कहते हैं ।। २५: ।। दूसरे दिन प्रातःकाल वे चक्रवर्ती महाराज पवित्र अलंकारोंको धारणकर महान राजाओंकी सभाके मध्य भागमें अवस्थित राजसिंहासनपर विराजमान होते हैं।।२५४॥ उस समय अति देदीप्यमान गंगानदीके जलकणोंके समान उज्ज्वल एवं वारवनिताओंके हाथोंसे सर्व ओर ढुलाये जाते हुए चँवरोंसे सुशोभित, तथा सेवाके लिए आये हुए धृति, प्रशान्ति,दीप्ति,ओज मलताके उत्पादक पथ्वी, जल, तेज, वाय और आकाश आदि देवताओके अंशोसे अर्थात उनके वैक्रियिक शरीरोंसे वेष्टित वे महाराज उन देवताओंको समाधान-पूर्वक सदा प्रजाके अनुग्रह करने में लगाते है और सन्मान, दान एवं विश्वास,धैर्य आदिको देकर प्रजाको प्रसन्न करते है।।२५५२५७ ।। उस समय नमस्कार करते हुए राजा-महाराजा लोगोंको सम्बोधनकर वे चक्रवर्ती सम्राट उन्हें आदेश देते है कि तुम लोग न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करो । यदि तुम्हारी अन्यायके कार्योमें प्रवृत्ति होगी, तो तुम लोगोंकी वृत्तिका लोप निश्चयसे हो जायगा, अर्थात् तुम्हारा राज्य नष्ट हो जायगा ।। २५८ ।। न्याय दो प्रकारका होता हैं-एक तो दुष्टजनोंका निग्रह करना और दूसरा शिष्ट पुरुषोंका पालन करना । यह दो प्रकारका क्षत्रियोंका सनातन धर्म है । राजाओंको अच्छी तरहसे इस क्षात्रधर्मकी रक्षा करना चाहिए ।२५९॥ अग्निबाण आदि दिव्य अस्त्रोंके अधिष्ठाता देवताओंकी भी विधिपूर्वक आराधना करनी चाहिये, क्योंकि आराधनासे अति प्रसन्न हुए देवताओंसे अवश्यम्भावी विजय होती हैं ।। २६० ।। हे राजा लोगो, आप सब इस राजधर्मको प्रमाद-रहित होकर सम्यक् प्रकारसे पालन करते हुए प्रजाओंमें न्यायमार्गसे व्यवहार करें ।। २६१ ।। जो राजा इस राजधर्मका भलि-भाँतिसे पालन करता हैं, वह धर्म विजयी होता है,क्योंकि अपनी आत्मापर विजय पानेवाला और न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाला क्षत्रिय ही इस पृथ्वीको जीत सकता है।।२६२॥ इसप्रकार न्यायपूर्वक राजधर्म के पालन करनेसे इस लोकमें यशका लाभ होता है, पृथिवीकी प्राप्ति होती है और महान् भाग्यका उदय होता हैं। तथा परलोकमें स्वर्गीय अभ्युदय की प्राप्ति होती है और अनुक्रमसे वह त्रैलोक्य-विजयी सिद्ध पदको प्राप्त करता हैं। २६३ ॥ इस प्रकार वे महाराज प्रजा-पालन करने की विधिमें बार-बार उन राजाओंको शिक्षण देकर स्वयं योग और क्षेमका विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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