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श्रावकाचार-संग्रह
स्थीयते येन तत्स्थानं द्विप्रकारमुदाहृतम् । वन्दना क्रियते यस्मादृथ्वभूयोपविश्य वा ॥ ५० घटिकानां मतं षट्कं सन्ध्यानां त्रितयं जिनैः । कार्यस्यापेक्षया कालः पुनरन्यो निगद्यते ॥ ५१ जिनेन्द्र बन्दनायोगमुक्ताशुक्तिविभेदतः । चतुविधोदिता मुद्रा मुद्रामार्गविशारदः । ५२ जिनमुद्राऽन्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरंगुलम् । ऊर्ध्वं जान्वोरधः स्थानं प्रलम्बित भुजद्वयम् ।। ५३ मुकुली भूतमाधाय जठरोपरिकूर्परम् । स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदिता ।। ५४ जिना: पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम् । उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे ।। ५५ मुक्ताशुक्तिमता मुद्रा जठरोपरिकूर्परम् । ऊर्ध्वजानो: करद्वन्द्वं संलग्नाङ्गुलि सूरिभिः ।। ५६ त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सूतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुबिधा ॥ ५७ आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते सा तनूत्सृतिः ।। ५८ धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोत्थितां सन्तस्तां वदन्नि तनूत्सूतिम् ॥ ५९ आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । उत्थितोपविशत्सञ्ज्ञां तां भाषन्ते विपश्चितः ।। ६० धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विचिन्त्यते । उत्थितोत्थितनामानं तां वदन्ति मनीषिणः ॥
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उपयोग करे और आवश्यकता होने पर अन्यका भी उपयोग करे ||४९ || अब आचार्य स्थानका वर्णन करते हैं - सामायिकादि आवश्यक करते समय जिस प्रकारसे अवस्थित रहे, उसे स्थान कहते हैं । वह दो प्रकारका कहा गया है, क्योंकि वन्दना या तो खड़े हो करके की जाती है, अथवा बैठकर की जाती है ||५० || अब सामायिकादिके कालको कहते है - जिनेन्द्रदेवने तीनों ही सन्ध्याओंमें आवश्यक करनेका काल छह घडी कहा हैं किन्तु कार्यकी अपेक्षा अन्य काल भो कहा है। भावार्थ - सामायिकादि आवश्यक तीनों सन्ध्याओं में किये जाते है और उनका उत्कृष्ट काल छह वडी हैं । शक्तिके अभाव में, अथवा अन्य आवश्यक कार्यके आ जानें परचार घडीका मध्यमकाल और दो घडीका जघन्यकाल भी कहा गया हैं ।। ५१ ।। अब आचार्य मुद्राके भेद कहते है - जिनेन्द्र मुद्रा, वन्दनामुद्रा, योगमुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्राके भेदसे मुद्रा मार्गके विशारदोंने चार प्रकारकी मुद्रा कही हैं ॥५२॥ |
अब आगे मुद्राओंका स्वरूप कहते हैं- दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओंको नीचे लटका कर सीधी जंघाएँ रखते हुए कायोत्सर्ग रूपसे खडे होने को जिनमुद्रा कहते है ॥५३॥ दोनों हाथोंको मुकुलित कर और उनकी कोहिनियोंको पेटके ऊपर रख कर खडे हुए पुरुष वन्दना मुद्रा कही गई हैं || ५४ ॥ पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासनसे बैठने के समय आसनोंकी गोद में नाभिके समीप दोनों हाथों की हथेलियोंको चित्त रखनेको जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते है ॥५५ ॥ दोनों हाथोंकी अँगुलियोंको मिला कर दोनों कुहनियोंको पेट पर रखकर खडे हुए पुरुष के आचार्योंने मुक्ताशुक्तिमुद्रा कही है ॥५६ || अब कायोत्सर्गका वर्णन करते है - शरीरसे ममत्व भावके त्यागको कायोत्सर्ग कहा गया हैं । वह उपविष्टोपविष्ट आदिके भेदसे चार प्रकार का है ॥५७॥ | जिस कायोत्सर्ग में आर्त और रौद्र ये दोनों अप्रशस्त ध्यान बैठ करके चिन्तवन किये जाते हैं, वह उपविष्टोपविष्ट नामका कायोत्सर्ग कहा जाता हैं ||५८ || जिस कायोत्सर्ग में बैठकर धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान चिन्तवन किये जाते हैं, उसे सन्न पुरुष उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग कहते है॥५९ ।। जिस कायोत्सर्ग में आर्त्त और रौद्र ये दो अप्रशस्न ध्यान खडे होकर चिन्तवन किये जाते है, उसे महाबुद्धिशाली पुरुष उत्थितोपविष्टनामका कायोत्सर्ग कहते है ॥ ६० ॥ जिस कायोत्सर्ग में धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान खड़े हो करके चिन्तवन किये जाते है, उसे
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