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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः एक द्विचित्रचतुः पञ्चदेहाश प्रणतेर्मतः । प्रणामः पञ्चधा देवैः पादानतनरामरैः ॥ ६२ एकाङ्गः शिरसो नामे स द्वयङ्गः करयोर्द्वयोः । त्रयाणां मूर्द्धहस्तानां स त्र्यङ्गो नमने मतः ॥ ६३ चतुर्णां करजानूनां नमने चातुरंगकः । करमस्तकजानूनां पञ्चाङ्गः पञ्चके नते ॥ ६४ कथिता द्वादशावर्ता पुर्वचनचेतसाम् । स्तवसामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणः ॥ ६५ अष्टाविंशति संख्याना: कायोत्सर्गा मता जिनैः । अहोरात्रगताः सर्वे षडावश्यककारिणाम् ।। ६६ स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैर्वन्दनायां षडीरिताः । अष्टौ प्रतिक्रमे योग मक्तौ तो द्वावुदाहृतो ।। ६७ अष्टोत्तरशतोच्छ्वास: कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे । सान्ध्ये प्राभातिके चार्धमन्यस्तत्सप्तविंशतिः ॥ ६८ विद्वज्जन उत्थितोत्थित नामका कायोत्सर्ग कहते हैं ॥ ६१ ॥ अत्र प्रणामका वर्णन करते हैं जिनके चरणों में मनुष्य और देवगण नमस्कार करते है ऐसे जिनेन्द्रदेवोंने एक दो तीन चार और पाँच अंगों के नमनसे प्रणाम पाँच प्रकारका कहा है ।। ६२ ।। एक शिरके नमानेको एकाङ्ग नमस्कार कहते हैं। दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार करनेको द्वयाङ्ग नमस्कार कहते हैं । एक शिर और दोनों हाथों को जोड़कर नमन करनेको याङ्ग नमस्कार माना गया हैं। दोनों हाथों और दोनों जाँघोंको नमा करके नमस्कार करनेपर चतुरङ्ग नमस्कार होता हैं । तथा दोनों हाथ, दोनों जाँघें और मस्तक इन पाँचों अंगोंको नमा करके नमस्कार करनेपर पञ्चाङ्ग नमस्कार कहा गया हैं ।।६३-६४ । अब आवर्त्तका वर्णन करते है - स्तवन और सामायिकके आदिमें और अन्त में काय, वचन और मनरूप तीन योगोंके परिवर्तन स्वरूप बारह आवर्त्त कहे गये है || ६५ ॥ विशेषार्थ - मन वचन कायके परिवर्तन करनेको आवर्त कहते है । तीनों योगों का परिवर्तन चार बार किया जाता है, अतः ( ३x४ = १२) बारह आवर्त हो जाते हैं । जैसे ' णमो अरहंताणं' इत्यादि सामायिक दण्डकके पहले क्रिया विज्ञापनरूप मनोविकल्प होता है, उस मनोविकल्पको छोडकर सामायिक दण्डकके उच्चारणमें मनको लगाना मन परावर्तन है । उसी सामायिक दण्डकके पूर्व भूमि स्पर्श करते हुए नमस्कार किया जाता हैं, उस समय वन्दनामुद्रा की जाती है, उस वन्दनामुद्राको त्यागकर पुनः खड़े होकर मुक्त- शुक्ति मुद्रारूप दोनों हाथोंको करके तीन बार घुमाना सो काय-परावर्तन है । 'चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमि' इत्यादि पाठको छोडकर 'णमो अरिहंताणं' इत्यादि पाठका उच्चारण करना वाक्परावर्तन हैं। इस प्रकार सामायिक दण्डकके आदिमे मन वचन और काय परावर्तनरूप तीन आवर्त होते हैं । इसी प्रकार सामायिक दण्डकके अन्त में भी तीन आवर्त होते है | इस प्रकार सामायिक दण्डकके आदि अन्तके छह आवर्त और स्तव दण्डकके आदि अन्त के छह आवर्त होते हैं। दोनोंके मिलाकर बारह आवर्त हो जाते हैं । ये बारह आवर्त एक कायोत्सर्ग में होते है । कुछ लोग बारह आवर्तीका इस प्रकार कथन करते हैं- सामायिक करनेके पूर्व मन वचन कायकी शुद्धि स्वरूप तीन बार हस्त- सम्पुटको घुमाकर नमस्कार करनेको एक दिशा सम्बन्धी तीन आवर्त कहते हैं । इस प्रकार चारों दिशाओंके बारह आवतं हो जाते हैं । अब कायोत्सर्गकी संख्या और उनके करनेका विचार करते है - छहों आवश्यक करनेवालोंके दिन और रात्रि सम्बन्धी सर्व कायोत्सर्ग जिनदेवोंने अट्ठाईस कहे है ।। ६६ । । यथा - स्वाध्याय करने में बारह, और वन्दनामें छह कायोत्सर्ग ज्ञानियोंने कहे हैं । प्रतिक्रमण करते समय आठ और योगभक्ति करते समय दो कायोत्सर्ग कहे गये हैं || ६७ || अब विभिन्न ससयोमें किये जानेवाले कायोत्सर्गोका कालप्रमाण बतलाते हैं- सन्ध्या अर्थात् सायंकाल-बम्बन्धी प्रतिक्रमण करते समय एकसी आठ श्वासोच्छ्वासवाला कायोत्सर्ग किया जाता है । प्रभानकाल सम्बन्धी प्रतिक्रमण में उससे आधा Jain Education International ३३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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