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________________ ३४० श्रावकाचार-संग्रह सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे । सन्ति पञ्चनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ।। ६९ प्रतिक्रमद्वयं प्राजैः स्वाध्यायानां चतुष्टयम् । वन्दनात्रितयं योगभक्तिद्वितयमिष्यते ।। ७० उत्कृष्टश्रावकेणते विधातव्याः प्रयत्नतः । अन्यरेते यथाशक्ति संसारान्तं यियासुमिः ।। ७१ इच्छाकारं समाचारं संयमासंयमस्थितः । विशुद्धवृत्तिभिः साधं विदधाति प्रियंवदः ।। ७२ वैराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतनम् । उत्कृष्ट: कारयत्येष मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः ॥ ७३ केवलं वा सवस्त्रं वा कोपीनं स्वीकरोत्ससो। एकस्थानानपानीयो निन्दागहापरायणः ।। ७४ स धर्मलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमाम् । सपात्रो याचते भिक्षां जरामरणसूदनीम् ॥ ७५ समस्तादरनिर्मुक्तो मदाष्टकवशीकृतः । प्रतीक्ष्यपीडनाकारी कूर्चमूर्द्धजकुंचकः ।। ७६ अर्थात् चौपन श्वासोच्छ्वासला कायोत्सर्ग कहा गया हैं । अन्य सर्व कायोत्सर्ग सत्ताईस श्वासोच्छ्वास काल प्रमाण कहे गये है ॥६८॥ संसारके उन्मूलनमें समर्थ पंचनमस्कार मंत्रके नौ वार चिन्तवन करनेपर सत्ताईस श्वासोच्छ्वास माने जाते है ॥६९:। विशेषार्थ-एक बार नमस्कारमंत्र. को तीन श्वासोच्छ्वासोंमें बोलना या मनमें उच्चारण करना चाहिए । बाहरसे भीतरकी ओर वायुके खींचनेको श्वास कहते हैं । भीतरकी ओर से बाहर वायुके निकालनेको उच्छ्वास कहते है। इन दोनोंके समूहको श्वासोच्छ्वास कहते हैं । श्वास लेते समय 'णमो अरहंताण' पद और श्वास छोडते समय ‘णमो सिद्धाणं' पद बोले । पुनः श्वास लेते समय ‘णमो आयरीयाणं' और श्वास छोडते समय 'णमो उवज्झायाणं' पर वोले । पुनः पंचम पदके आधे भागको श्वास लेते समय और शेष आधे भागको श्वास छोडते समय बोले । अर्थात् ‘णमो लोए' श्वास लेते समय और 'सवसाहूण' श्वास छोडते समय बोलना चाहिए । इस प्रकार एक पंचनमस्कार मंत्रका उच्चारण तीन श्वापोच्छ्वासमें करना चाहिए। इस विधिसे नौ बार णमोकारमंत्रके उच्चारणके चिन्तवनमें सत्ताईस श्वासोच्छ्वास प्रमाण कालका एक जघन्य कायोत्सर्ग होता है। मध्यम कायोत्सर्गका काल चौपन श्वासोच्छवास प्रमाण और उत्कृष्ट कायोत्सर्गका काल एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण कहा गया है। श्रावकोंको प्रतिदिन दो बार प्रतिक्रमण, चार बार स्वाध्याय, तीन बार वन्दना और दो बार योगभक्ति करना चाहिए, ऐसा ज्ञानियोंने कहा है ॥७०॥ उत्कृष्ट श्रावकको ये सर्व कार्य प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए। और संसारके पार जाने के इच्छुक अन्य पुरुषोंको उन्हें यथा शक्ति करना चाहिए ॥७१॥ संयमासंयम (देश चारित्र) की स्थितिवाले प्रियभाषी श्रावक विशुद्ध वृत्तिवाले श्रावकोंके साथ इच्छाकार समाचारको करते है ।।७२।। ग्यारहवीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावक वैराग्यकी परम भमिरूप, तथा संयमके गहस्वरूप शिर और दाढीके मंडनको कराता हैं ॥७३॥ वह केवल कोपीन (लंगोटी) अथवा वस्त्र-सहित कौपीनको स्वीकार करता हैं। अर्थात् ऐलक एक कौपीन रखते है और क्षुल्लक कौपीन और एक वस्त्र रखते हैं । ये उत्कृष्ट श्रावक एक स्थान पर ही अन्न-पानको ग्रहण करते हैं और अपनी निन्दा और गह में तत्पर रहते है।।७४।। वे पात्र-(भाजन) सहित श्रावकके प्रति घर जाकर अमृतके समान जरा-मरणका नाश करनेवाली भिक्षाको ‘धर्म लाभ हो', ऐसा कहकर याचना करते हैं ।।७५।। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि ऐलक न तो भोजन-पात्र ही रखते हैं और न घर-घर जाकर भिक्षा-याचना ही करते है। श्लोक-कथित विधि क्षल्लकके लिए हैं । अब वन्दनाके बत्तीस दोषोंका वर्णन करते है-समस्त प्रकारके आदरसे रहित होकर वन्दना करना अनादरदोष है श जातिकुलादि आठ मदोंमेंसे किसी भी मदके वशीभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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