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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचार: ३४१ चलयन्नखिलं काय दोलारूढ इवाभितः । अग्रतः पार्वतः पश्चाद्रिखन् कूर्म इवामितः ॥ ७७ करटीवांकुशारूढः कुर्वन्मूर्द्धनतोन्नतिम् । क्षिप्रं मत्स्य इवोत्पत्य' परेषां निपतन पुरः ।। ७८ कुर्वन् वृक्षोभमद्वन्द्वं विज्ञप्ति द्राविडीमिव । पूज्यात्मासादनाकारी गर्वादिजनभीषितः ॥ ७९ भयसप्तकवित्रस्त: परिवारद्धिवितः । समाजतो बहिर्भूय किञ्चिल्लज्जाकुलाशयः ।। ८०॥ प्रतिकलो गरोभूत्वा कुर्वाणो जल्पनाविकम् । कस्यचिदुपरि क्रुद्धस्तस्याकृत्वा क्षमा त्रिधा ।। ८१ ज्ञास्यते वन्वनां कृत्वा भ्रमयस्तर्जनीमिति । हसनोद्धट्टने कुर्वन् भृकुटीकुटिलालकः ।। ८२ निकटीभूय गुर्बादेराचार्याविनिरीक्षितः । करदानं गणमंत्वा हत्वा दृष्टिपथं गुरोः ।। ८३ लब्ध्वोपकरणादीनि तेषां लाभाशयाऽपि च । असम्पूर्णविधानेन सूत्रोदितपिधायकम् ॥ ८४ कुर्वन्मूक इवात्यर्थ हुंकारादिपुरस्सरम् । वन्दारूणां स्वशब्देन परेषां छापयन् ध्वनिम् ।। ८५ होकर वन्दना करना स्तब्ध दोष हैं २। वन्दनीय जनको देखकर अंगोंके दाबनेको पीडित दोष कहते हैं । वन्दनाके समय शिर मूंछ-दाढीके केशोंको मरोडना कुंचित दोष है ४। वन्दनाके समय झूलामें बैठे हुएके समान सर्व ओरसे सारे शरीरको चलाना दोलायित दोष है ५। कछएके समान आगेसे, पीछेसे, बाजूसे-चारों ओरसे अंगोंका संकोच-विस्तार करना कच्छप-रिगित दोष है ६। हाथके अंगूठेको मस्तक पर अंकुशके समान रखकर हाथीके समान शिरको ऊँचा-नीचा करना अंकुशित दोष है ७। मच्छके समान शीघ्र उछलकर दूसरे वन्दना करनेवालोंके आगे पडना अथवा मछलीके समान तडफडाते हुए वन्दना करना मत्स्योद्वर्तन दोष हैं । ८। द्रविड देश के पुरुषकी विनंतीके समान वक्षस्थल पर दोनों हाथोंको करके वन्दना करना द्राविडी विज्ञप्ति दोष हैं ९। पूज्य पुरुषोंकी अवज्ञा करते हुए वन्दना करना आसादना दोष है १०। गुरु आदिके भयसे वन्दना करना विभीत दोष है १५ । इहलोक भय परलोकभय आदि सात भयोंसे डरते हुए वन्दना करना भय दोष है १२' अपने कुटुम्ब-परिवारकी ऋद्धि के गर्वसे युक्त होकर वन्दना करना ऋद्धि गौरव दोष है १३। साधर्मी समाजसे बाहर होकर कछ लज्जाकलित चित्त होकर वन्दना करना लज्जित दोष है १४। गुरुके प्रतिकूल होकर वन्दना करना प्रतिकूल दोष हैं १५। वचनालाप करते हुए वन्दना करना शब्ददोष हैं १६। किसीके ऊपर क्रोधित होकर तथा उससे मन वचन काय द्वारा क्षमा न माँग कर वन्दना प्रदुष्ट दोष है १७। कोई जान ले कि मैने वन्दना की है इस अभिप्रायसे तर्जनीको घुमाते हुए वन्दना करना मनोदुष्ट दोष है १८६ हँसते और अंगोंको घिसते हुए वन्दना करना हसनोद्घट्टन दोष है १९। भृकुटीको टेडी करते हुए वन्दना करना भुकुटी कुटिलदोष हे २०। गुरु आदिके अति निकट जाकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है २१॥ आचार्य आदिकके द्वारा देखने पर तो सम्यक् प्रकारसे वन्दना करना, अन्यथा यद्वा तद्वा वन्दना करना दृष्ट दोष है २२। संघम कर दान मानकर वन्दना करना करमोचन दोष हैं २३। गुरुकी दृष्टि बचाकर वन्दना करना अदृष्ट दोष हैं २४। उपकरण आदि प्राप्तकर वन्दना करना आलब्ध दोष हैं २५। उपकरण आदिके पाने की इच्छासे वन्दना करना अनालब्ध दोष हैं २६. काल, शब्द आदिकी पूरी विधि न करके अधूरी वन्दना करना हीन दोष हैं २७। सूत्र-कथित अर्थको ढककर वन्दना करना पिधायक दोष हैं २८। गूंगेके समान अत्यधिक हुंकारादि करते हुए वन्दना करना मूकदोष है २९। अन्य वन्दना करनेवालोंके शब्दको अपने उच्चस्वरसे बोले गये शब्दोंसे ढकते हुए वन्दना करना दुर्दुरदोष हैं ३०। गुरु आदिके बिलकुल आगे खडे होकर वन्दना करना अग्रदोष है १. म. 'इवीत्प्लुत्य' पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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