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महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन
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अदीक्षार्हे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । एतेषामफ्नीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥ १७० तेषां स्यादुचितं लिङ्ग स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशा कधारित्वं संन्यासमरणावधि ।। १७१ स्यान्निरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्सर्गो ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ॥ १७२ इति शुद्धतरां वृत्ति व्रतपूतामुपेयिवान् । यो द्विजस्तस्य सम्पूर्णो वतचर्याविधिः स्मृतः ।। १७३ दशाधिकारास्तस्योक्ता: सूत्रेणोपासिकेन हि । तान्यथाक्रममद्देशमात्रणानुप्रचक्ष्महे ।। १७४ तत्रातिबालविद्याऽऽद्या कुलावधि नन्तरम् । वर्णोत्तमत्वपात्रत्वे तथा सृष्ट्यधिकारिणः ॥ १७५ व्यवहारेशिताऽन्या स्यादवध्यत्वमदण्ड्यता । मानार्हता प्रजासम्बन्धान्तरं चेत्यनुक्रमात् ॥ १७६ दशाधिकारि वास्तूनि स्युरुपासकसङ्ग्रहे । तानीमानि यथोद्देश सङ्कपेण विवृण्महे ।। १७७ बाल्यात्प्रभृति या विद्या शिक्षोद्योगात द्विजन्मनः । प्रोक्तातिबालविद्येति सा क्रिया द्विजसम्मता।।१७८ तस्यामसत्यां मूढात्मा हेयादेयानभिज्ञकः । मिथ्याश्रुति प्रपद्येत द्विजन्मान्यैः प्रतारितः ॥ १७९ बाल्य एघ ततोऽभ्यस्येद् द्विजन्मौपासिकों श्रुतिम् । स तया प्राप्त संस्कार स्वषरोत्तारको भवेत्।।१८० कुलावधि: कुलाचाररक्षणं स्याद् द्विजन्मनः । तस्मिन्नसत्यसो नष्टक्रियोऽन्यकुलतां भजेत् ।। १८१ वर्णोत्तमत्वं वर्णेषु सर्वेष्वाधिक्यमस्य वै । तेनायं श्लाघ्यतामेति स्वपरोद्धारणक्षमः ।। १८२ वर्णोत्तमत्व यद्यस्य न स्यान्न स्यात्प्रकृष्टता । अप्रकृष्टश्च नात्मानं शोधयन्न परान्नपि ॥ १८३ कहीं निषेध नहीं हैं।।१६८-१६९॥जो दीक्षाके अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए है और नृत्य-गान आदि विद्या एवं शिल्पसे अपनी आजीविका करते हैं,ऐसे पुरुषोंको उपनयन आदि संस्कार करनेकी आज्ञा नहीं हैं।।१७०।किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यताके अनुसार व्रत-धारण करें तो उनके योग्य चिन्ह यह हैं कि वे संन्यास-मरण-पर्यन्त एक धोती धारण करें, निरामिष-भोजन करें विवाहित कुलस्त्रीके ही सेवनका व्रत पाले, सांकल्पिक हिंसाका त्याग करें और अभक्ष्य वस्तुओंके भक्षणका एवं अपेय मद्यादिके पीनेका त्याग करें ।।१७१-१७२।। इस प्रकार जो द्विज व्रतोंसे पवित्र, अतिशुद्ध वृत्तिको धारण करता है,उसके व्रतचर्याकी सम्पूर्ण विधि मानी गई हैं।। १७३ । व्रती द्विजोंके लिए उपासकाध्ययन सूत्रमें दश अधिकार कहे गये हैं, उन्हें अब आगे यथाक्रमसे नाम-निर्देशपूर्वक कहते है ॥१७४।। उन अधिकारों में पहला अतिबाल विद्या,दूसरा कुलावधि, तीसरा वर्णोत्तमत्व, चौथा पात्रत्व, पाँचवाँ सृष्टि-अधिकारिता,छठा व्यवहारेशिता, सातवाँ अवध्यत्व, आठवाँ अदण्डत्व, नवाँ मानार्हत्व और दशवाँ प्रजा-सम्बन्धान्तर है उपासक संग्रहमें अनुक्रमसे ये दश अधिकार वस्तुएँ प्रतिपादित की गई हैं,उन सबका नाम-निर्देशके अनुसार संक्षेपसे वर्णन करते हैं ।।१७५-१७७।। द्विजको बाल्य-कालसे जो विद्या सिखानेका उद्योग किया जाता हैं, उसे ब्राह्मण लोग अति बालविद्या नामकी क्रिया कहते हैं।। १७८।। इस अतिवालविद्याके अभाव में द्विज मूढात्मा रहता है,उसे हेय उपादेयको ज्ञान नहीं हो पाता और वह द्विजाभिमानी द्विजाभासियोंसे प्रतारित होकर मिथ्याश्रुतिको प्राप्त होजाताहै।।१७९।। इसलिए द्विजोंको बाल्यकालमें ही उपासकाध्ययन शास्त्रका अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि उपासाध्ययनके अभ्याससे संस्कारको प्राप्त हुआ द्विज स्व और परका तारनेवाला हो जाता है।।१८०॥ अपने कुलके आचारका रक्षण करना द्विजकी कुलावधि क्रिया हैं।कुलके आचारका पालन नहीं करने पर द्विजकी समस्त क्रियाएँ नष्ट हो जाती है और वह अन्य कुलको प्राप्त हो जाता हैं।।१८१।।समस्त वर्णो में श्रेष्ठ होना ही द्विजकी वर्णोत्तम क्रिया हैं। इस वर्णोत्तम क्रियासे वह प्रशंसाको प्राप्त होता हैं और स्व-परके उद्धार करने में समर्थहोताहै।।१८२।यदि इसके वर्णोत्तमत्व नहीं हैं,तो उसके प्रकृष्टता
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