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________________ श्रावकाचार-संग्रह कोपीनाच्छादनं चैनमन्तर्वासेन कारयेत् । मौञ्जीबन्धमतः कुर्यादनुबद्ध त्रिमेलकम् ।। १५७ सूत्रं गणधरैष्टब्धं व्रतचिन्हं नियोजयेत् । मन्त्रपूतसूतो यज्ञोपवीती स्यादसौ द्विजः ।। १५८ जात्येव ब्राह्मणः पूर्वमिदानीं व्रतसंस्कृतः । द्विजतो द्विज इत्येवं रूढिमास्तिघ्नुते गुणैः ॥ १५९ देयान्यणुव्रतः न्यस्मै गुरुसाक्षि यथाविधि । गुणशीलानुगंश्चैनं संस्कुर्याद् व्रतजातकैः ।। १६० ततोऽतिबाल-द्यादीन्नियोगादस्य निर्दिशेत् । दत्वोपासकाध्ययनं नामापि चरणोचितम् ।। १६१ ततोऽयं कृतसंस्कार: सिद्धार्चनपुरःसरम् । यथाविधानमाचार्यपूजां कुर्यादतः परम् ।। १६२ तस्मिन्दिने प्रविष्टस्य भिक्षार्थ जातिवेश्मसु । योऽथंलाभः स देयः स्यादुपाध्यायाय सादरम् ।।१६३ शेषो विधिस्तु प्राक्प्रोक्तमनूनं समाचरेत् । यावत्सोऽधीतविद्यः सन् भजेत् सब्रह्मचारिताम् ।। १६४ अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् । स्याद्यत्रोपासकाध्यायः समासेनानु संहृतः ।। १६५ शिरोलिङ्गमुरोलिङ्ग लिङ्गकट्यूरुसंश्रितम् । लिङ्गमस्योपनीतस्य प्राग्निर्णीतं चतुविधम् ॥ १६६ तत्तु स्यादसिवृत्या वा मष्या कृष्या वणिज्यया । यथास्वं वर्तमानानां सद्दृष्टीनां द्विजन्मनाम्॥ १६७ कुतश्चित्कारणाद् यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम्। सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं यदाकुलम् ।। १६८ तदास्योपनयार्हत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ । न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ।। १६९ ९२ रावे ।।१५६॥ इसे वस्त्र के भीतर कौपीन ( लंगोट ) से आच्छादित करे और उसपर मूंजकी तीन लड-वाली रस्सी बाँधे ॥१५७॥ तत्पश्चात् वह द्विज गणधर देबोंसे प्रतिपादित, व्रतोंका चिन्हस्वरूप मंत्रोंसे पवित्र किया हुआ यज्ञोपवीत पहिरावे । इसप्रकारसे यज्ञोपवीतधारण करनेवाला वह बालक द्विज हो जाता हैं ।। १५८। । इसके पूर्व वह बालक जन्मसे ही द्विज था और अब व्रतोंसे संस्कृत होकर दूसरी बार उत्पन्न हुआ हैं, अतएव दोवार जन्म लेनेसे वह 'द्विज' इस प्रकारकी रूढिको गुणोंसे प्राप्त होता हैं ।। १५९ ।। उस समय उस पुत्रके जिए यथाविधि गुरु साक्षीपूर्वक पंच अणुव्रत देना चाहिए | तथा गुणव्रत और शिक्षाव्रतके अनुगामी व्रतोंके समूहसे उसका संस्कार करना चाहिए ।। १६० ।। तदनन्तर गुरु उसे उपासकाध्ययनसूत्र पढाकर और चारित्रके योग्य उसका नाम रखकर वक्ष्यमाण अतिबालविद्या आदिका उपदेश देवे ॥ १६९॥ इसप्रकार से संस्कारको प्राप्त वह बालक पुन: सिद्धोंकी पूजा-पूर्वक यथाविधि आचार्यकी पूजा करे ।। १६२ ।। उस दिन उस बालकको अपनी जातिवालों के घरोंमें जाकर भिक्षा माँगना चाहिए। उस भिक्षा में जो कुछ अर्थ-लाभ हो, उसे आदरपूर्वक उपाध्यायको दे ( और स्वयं भिक्षासे प्राप्त आहारको खावे ) || १६३॥ शेष पूर्वोक्त सर्वविधि पूर्णरूपसे करे । इसके अतिरिक्त जब तक वह विद्या पढे, तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहे || १६४ || अब इससे आगे व्रतचर्याको अनुक्रमसे कहूँगा, जिसमें कि उपासकाध्ययनका संक्षेपसे संग्रह किया गया है॥१६५॥पूर्वोक्त प्रकारसे उपनीतसंस्कारवाले बालकको शिरका चिन्ह मुण्डन, वक्षःस्थलका चिन्ह यज्ञोपवीत कटिका चिन्ह मौंजीबन्धन और जंघाका चिन्ह श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिए | इनका निर्णय पहले कर आये है ।। १६६ ।। जो लोग अपनी योग्यताके अनुसार असि आदि शस्त्रोंके द्वारा मी आदि लेखनकला के द्वारा, कृषिके द्वारा और वाणिज्यके द्वारा अपनी आजीविका करते है ऐसे सम्यग्यदृष्टि द्विजोंको यज्ञोपवीत आदि चारों प्रकारके चिन्ह धारण करना चाहिए॥१६७॥ यदि कदाचित् किसी कारणसे जिस किसी उच्च वर्णी पुरुषका कुल दूषणको प्राप्त हो जाय तो वह भी राजा आदी सम्मति से जब अपने कुलको शुद्ध कर ले, तब यदि उसके पूर्वज लोग दीक्षा धारण करने के योग्य कुल में उत्पन्न हुए हों, तो उसके पुत्र-पौत्रादि सन्तानके लिए उपनयन संस्कारकी योग्यताका 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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