SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन स्यात्परमनिस्तारककेशभागी भवेत्यतः ! परमेन्द्रपदादिश्च केशभागी भवध्वनिः ।। १४९ परमार्हन्त्यराज्यादिकेशभगीति वारद्वयम् । भवेत्यन्तपदोपेतं मन्त्रोऽस्मिन्स्याच्छिखापदम् ।। १५० शिखामेतेन मन्त्रण स्थापयेद्विधिवद् द्विजः । ततो मन्त्रोऽयमाम्नातो लिपिसंख्यातसङ्ग्रहे। १५१ चणिः- उपनयनमुण्डभागी भव,निर्ग्रन्यमण्डभागी भव,परमनिस्तारककेशभागी भाव, परमेन्द्र केशभागी भव,परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव ।। ( इतिचौलक्रियामन्त्रः ) शब्दपारभागी भव, अर्थपारभागी भव । पदशब्दार्थसम्बन्धपारभागी भवेत्यपि ।। १५२ चूणिः- शब्दपारगामी (भागी) भव,अर्थपारगामी (भागी) भव,शब्दार्थपारगामी (भागी) भव । (लिपिसङ्ख्यानमन्त्र: ) उपनीतक्रियामन्त्रं स्मरन्तीम द्विजोत्तमाः । परमनिस्तारकादिलिङ्गभागी भवेत्यतः ।। १५३ युक्तं परमपिलिङ्गेन भागी भव पदं भवेत् । परमेन्द्रादिलिङ्गादिभागी भव पदं परम् ।। १५४ एवं परमराज्यादि परमार्हन्त्यादि च क्रमात । युक्त परमनिर्वाणपदेन च शिखापदम् ॥ १५५ चूणिः- परमनिस्तारकलिङगभागो भव,परमपिलिङ्गभागी भव,परमेन्द्र लिङ्गभागी भव,परम राज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव । ( इत्युपनीतिक्रियामन्त्रः ) मन्त्रेणानेन शिष्यस्य कृत्वा संस्कारमादितः । निर्विकारेण वस्त्रेण कुर्यादेनं सवाससम ।। १५६ पदमें केशलुञ्चरूप मुण्डनको प्राप्त हो ) यह तीसरा मंत्र है ॥१४८॥ तत्पश्चात् 'परमनिस्तारककेशभागी भव' (संसार-समुद्रसे पार उतारनेवाले आचार्य केशोंको प्राप्त हो) यह चौथा मंत्र हैं । तदनन्तर परमेन्द्रकेशभागी भव' (इन्द्रपदके केशोंका धारक हो) यह पाँचवाँ मंत्र बोले ॥१४९।। पुन: ‘परमराज्यकेशभागी भव (चक्रवर्तीके केशोंशो प्राप्त हो) यह छठा मंत्र हैं। और 'आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव' कैवल्य साम्राज्यवाले अरहन्तके केशोंका धारक हो) यह सातवाँ अन्तिम मंत्र हैं। द्विज इन मंत्रोंको बोलकर विधिपूर्वक शिरपर शिखा (चोटी) मात्र रखकर मुण्डन करावे । अब इससे आगे लिपिसंख्यान क्रियाके मंत्र कहते है।।१५०-१५०।। चौल क्रियाके मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । लिपिसंख्यान क्रियाके मंत्र-'शब्दपारभागी भव' (शब्दशास्त्रका पारगामी हो) 'अर्थपारभागी भव' (सर्व अर्थका पारगामी हो) और शब्दार्थसम्बन्धपारभागी भव (शब्द और अर्थके सम्बन्धका पारगामी हो) ये मंत्र लिपिसंख्यान क्रियाके समय बोले ।।१५२।। उक्त मंत्रोंका संग्रह मूल में दिया गया हैं । उत्तम द्विज उपनीति क्रियाके मंत्र इस प्रकार स्मरण करते है-'परम निस्तारकलिंगभागी भव' (हे वत्स, तू परम निस्तारक आचार्यका चिन्ह-धारक हो) परमर्षिलिंगभागी भव' (परम ऋषिका चिन्हधारक हो) और परमेन्द्रलिंगभागी भव' (परम इन्द्रका चिन्हधारक हो) ये मंत्र बोले । पुनः क्रमसे परमराज्य, परमार्हन्त्य और परमनिर्वाण पदके साथ 'लिंगभागी भव'पद जोडकर इस प्रकारसे मंत्र बोले 'परमरायलिंगभागी भव' (परमराज्यका चिन्ह-धारक हो) 'परमार्हन्त्यलिंगभावी भव' (परम अर्हन्तपदका चिन्ह-धारक हो) और 'परम निर्वाणलिंगभागी भव (परम निर्वाणका चिन्ह-धारक हो ) ॥१५३-१५५।। इन मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । इन मंत्रोंसे प्रथम ही शिष्यका संस्कार कर उसे निर्विकार वस्त्रसे युक्त करे अर्थात् सादा वस्त्र पहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy