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________________ ९४ श्रावकाचार-संग्रह ततोऽयं शुद्धिकामः सन् सेवेतान्यं कुलिङ्गिनम् । कुब्रह्म वा ततस्तज्जान दोषान प्राप्नोत्यसंशयम ॥ १८४ प्रदानाहत्वमस्येष्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । गुणाधिकोहि लोकेऽस्मिन् पूज्य: स्याल्लोकपूजिते ।।१८५ ततो गुणकृतां स्वस्मिन् पात्रतां द्रढयेद्विजः । तदभावे विमान्यत्वात् हियतेऽस्य धनं नृपैः ॥ १८६ रक्ष्यः सष्ट्यधिकारोऽपि द्विजैरुत्तमसृष्टिभिः । असदृष्टि कृतां सृस्टि परिहत्य विदूरतः ।। १८७ अन्यथा मष्टिवादेन दुर्दृष्टेन कुदृष्टयः । लोकं नृपांश्च सम्मोह्य नयन्त्युत्पथगामिताम् ।। १८८ सृष्टचन्तरमतो दूरमपास्य नयतत्त्ववित् । अनादिक्षत्रियः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् ।। १८१ तीर्थकृद्भिरियं सृष्टां धर्मसृष्टिः सनातनी । तां संश्रितान्नुपान्नेव मृष्टिहेतून् प्रकाशयेत् ।। १९० अन्यथाऽन्यकृतां सृष्टि प्रपन्नाः स्युनृपोत्तमाः । ततो नश्वर्यमेषां स्यात्तत्रस्थाश्च स्युराहताः । १९१ व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतन्त्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥१९२ तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति । अशुद्धः परतः शुद्धिमाभीप्सन्न्यक्कृतो भवेत् ।। १९३ स्वादवध्याधिकारेऽपि स्थिरात्मा द्विजसत्तमः । ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वध महति ॥१९४ सर्वः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मणस्तु विशेषतः । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेपि द्वयात्मता मता ।। १९५ भी नहीं हो सकती। और जो उत्कृष्टताको प्राप्त नहीं हैं,वह न तो अपने आपको शुद्ध कर सकता हैं और न दूसरोंको ही शुद्ध कर सकता है।।१८३॥तब यह अपनी शुद्धिका इच्छुक होता हुआ अन्य कुलिंगियोंकी सेवा करता है,अथवा कुदेवोंकी सेवा करता हैं और उसके फलस्वरूप तज्जनित दोषोंको असन्दिग्ध रूपसे प्राप्त होता है।।१८४।।गुणोंके गौरवसे दान देनेके योग्य पात्रता भी इन्हीं द्विजोंमें मानी जाती है क्योंकि इस लोकमें अधिक गुणवान् पुरुष लोक-पूजित जनोंके द्वारा भी पूजा जाता है।।१८५। इसलिए द्विजको चाहिए कि वह अपने भीतर गुणोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाली पात्रताको और भी दढ करे, क्योंकि पात्रताके अभावमें लोक-सन्मान नहीं प्राप्त होता और उसके न होनेसे राजाओंके द्वारा उसका धन हरण कर लिया जाता है ॥१८६।।आगे सृष्टयधिकारको कहते है-उत्तम सष्टिवाले द्विजोंको अपने सृष्टिअधिकारकी रक्षा करनी चाहिए और मिथ्या दृष्टियोंके द्वारा चलाईगई धर्मसष्टिको दूरसे ही त्यागना चाहिए ॥१८७॥ अन्यथा मिथ्यादृष्टिलोग दूषित सृष्टिवादसे लोगोंको और राजाओंको मोहितकरउन्हें कुपथगामी कर देंगे।।१८८।।अतएव अन्य मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रवतित सृष्टिको दूरसे ही छोडकर नयतत्त्वज्ञ द्विज अनादिकालिक क्षत्रियवंशी तीर्थङ्करोंसे द्वारा रचित धर्मसष्टिकी प्रभावना करे।।१८९६ तथाइस धर्मसृष्टिका आश्रय लेनेवाले राजाओंसे सृष्टिकेकारणोंके इसप्रकार कहे कि यह धर्मसृष्टि तीर्थकरोंके द्वारा रचित है, अतः सनातनी है, अर्थात् अनादिकालसे चली आ रही हैं, अतः इसकी रक्षा करना आपका कर्तव्य है।।१५०।।यदि द्विच लोक राजाओंसे ऐसा नहीं कहेंगे तो वे नपोत्तम अन्य लोगोंके द्वारा की हुई सृष्टिको मानने लगेंगे,जिससे उनका ऐश्वर्य नहीं रह सकेगा,तथा आर्हतमतानुयायी जैन लोग भी उसी धर्मको मानने लगेंगे॥१९॥परमागम. का आश्रय लेनेवाले द्विजोंको प्रायश्चित्तादि कार्योंमें जो स्वतंत्रता हैं,उसे ही व्यवहारेशिता कहते है ॥१९२।। इस व्यवहारेशिताके अभावमें द्विज न अपने आपको शुद्ध करने के लिए योग्य रहता है और न दूसरोंको ही शुद्ध कर सकता है तथा अन्यसे शुद्धिको चाहनेवाला अशुद्ध द्विज संसारम तिरस्कार को प्राप्त होता है।।१९३।।गुणोंमें स्थिर रहनेवाला श्रेष्ठ द्विज अवध्याधिकारमें भी स्थित रहता हैं. क्योंकि गुणोंके उत्कर्षसे ब्राह्मण अन्य राजा आदिके द्वारा वधको प्राप्त नहीं होता,अर्थात अवध्य रहता है॥१९४॥सभी प्राणी हन्तव्य नहीं हैं,अर्थात् किसी भी प्राणीको नहीं मारना चाहिए और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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