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महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन
तस्मादवध्यतामेष पोषयेद् धार्मिके जने । धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्त्राभिभूयते ।। १९६ तदभावे च वध्यत्वमयमृच्छति सर्वतः । एवं च सति धर्मस्य नश्येत् प्रामाण्यमर्हताम् ।। १९७ ततः सर्वप्रयत्नेन ग्क्ष्यो धर्मः सनातनः । स हि संरक्षितो रक्षां करोति सचराचरे ॥। १९८ स्याददण्डयत्वमप्येवमस्य धर्मे स्थिरात्मनः । धर्मस्थो हि जनोऽन्यस्य दण्डप्रस्थापने प्रभुः ।। १९ तद्धर्मस्थं यमाम्नाय भावयन् धर्मदशिभिः । अधर्मस्थेषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नृपः ॥। २०० परिहार्य यथा देवगुरुद्रव्य हितार्थभिः । ब्रह्मस्वं च तथा भूतं न दण्डार्हस्ततो द्विजः ॥ २०१ क्याना गुण धिक्यमात्मन्यारोपयन् वशी । अदण्ड्यपक्ष स्वात्मानं स्थापयेद्दण्डधारिणाम् ॥ २०२ अधिकारे सत्यस्मिन् स्याद्दण्ड्योऽयं यथेतरः । ततश्च निस्स्वतां प्राप्तो नेहामुत्र च नन्दति ॥। २०३ मान्यत्वमस्य सन्धत्ते मानाईत्वं सुभावितम् ।
गुणाधिकोहि मान्यः स्याद् वन्द्यः पूज्यश्च सत्तमैः ॥ २०४ असत्यस्मिन्नमन्यत्वमस्य स्यात् सम्मतैर्जनैः । ततश्च स्थानमानादि लाभाभावात् पदच्युतिः ॥ २०५ तस्मादयं गुणैर्यत्नादात्मन्यारोप्यतां द्विजैः । ग्रत्नश्च ज्ञानवृत्तादिसम्पत्तिः सोज्झतां न तैः ।। २०६
ख़ास तौर से ब्राह्मणको नहीं मारे, क्योंकि गुणोंके उत्कर्ष और अपकर्षसे हिंसा में भी द्विरूपता मानी गई हैं। १९५। अतएव ब्राह्मण गुणोंके उत्कर्ष द्वारा धार्मिक जनोंमें अपनी अवध्यताको पुष्ट करे । यह धर्मका ही माहात्म्य हैं कि जो अपने धर्म में स्थित रहता हैं वह किसीके द्वारा अपमानित नही होता हैं ।। १९६ ।। जो ब्राह्मण गुणोंके उत्कर्ष द्वारा अपनी अवध्यताको सिद्ध नहीं करता है, प्रत्युत गुणों के अपकर्षसे अपनी हीनताको प्रकट करता है, वह सभी से वध्यताको प्राप्त होता हैं । और ऐसा होने पर अरहन्त देवके इस जैन धर्मकी प्रामाणिकता नष्ट हो जायगी । । १.९७ । । इसलिए सर्व प्रकार के प्रयत्नोंसे इन सनातन धर्मकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि भली-भाँति से संरक्षित धर्म ही इस चर (स), अचर ( स्थावर ) प्राणियोंसे भरे जगत् में जीवकी रक्षा करता हैं. । १९८ ।। इसीप्रकार धर्ममें स्थिर रहनेवाले द्विजको अपने अदण्डत्वका भी अधिकार हैं, क्योंकि धर्मस्थ पुरुष ही दूसरे अपराधी को दण्ड देने में समर्थ हो सकता है । । १९९ ।। इसलिए धर्म-दर्शी लोगोंके द्वारा बतलायी गयी धर्मात्मा
की आम्नाय का विचार करता हुआ धार्मिक राजा अधर्मस्थ लोगों में दण्डका प्रणेता माना गया है,अर्थात् धार्मिक राजा ही अधर्मियोंको दण्ड देनेका अधिकारी हैं ॥ २०० ॥ | जिस प्रकार अपना हित चाहनेवाले लोगोंको देव द्रव्य और गुरु- द्रव्यका परिहार (त्याग) करना आवश्यक हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणका धन भी त्याग करनेके योग्य हैं और इसीलिए ही द्विज दण्ड देने के योग्य नहीं हैं ॥ २०१ ॥ इयुक्त अपने अधिक गुणों का आरोप करता हुआ वह जितेन्द्रिय ब्राह्मण दण्ड देने के अधिकारी राजा आदि पुरुषोंके सम्मुख अपने आपको अदण्डय अर्थात् दण्ड न देनेके योग्य पक्ष में स्थापित करे ।। २०२ ।। इस अदण्ड्य अधिकारके अभाव में अन्य पुरुषोंके समान ब्राह्मण भी दण्डनीय हो जायगा और उसके फलस्वरूप वह दरिद्रताको प्राप्त होकर न इस लोक में ही सुखी रह सकेगा और न परलोकमें ही सुखी हो सकेगा । । २०३ ॥ भलीभाँति से चिरकाल तक सुभावित सम्मानके योग्य आचरण ही ब्राह्मणको मान्यपना प्रदान करता है, क्योंकि अधिक गुणोंवाला पुरुष ही उत्तम पुरुषो के द्वारा मान्य,
और पूजनीय होता हैं । २०४ | | सम्मान के योग्य गुणों के अभाव में इस द्विजको उत्तम पुरुषोंके द्वारा मान्यपना नहीं प्राप्त होगा और इस कारण उनसे स्थान, मान, आसनादिके न मिलनेसे वह ब्राह्मण अपने पदसे च्युत हो जावेगा । इसलिए द्विजको चाहिए कि वह यह मान्यत्वगुण बडे यत्नसे अपने
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