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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १४३ निष्पन्दादिविधौ वक्त्रे यद्यपूतत्वमिष्यते । तहि वक्त्रापवित्रत्वे शौचं नारभ्यते कुतः ।। १३० विकारे विदुषां द्वेषो नाविकारानुवर्तने । तन्नग्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ।। १३१ नैष्किञ्चन्यमहिंसा च कुतः पंमिनां भवेत् । ते सगाय यदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥१३२ न स्वर्गाय स्थितेभक्तिर्न श्वभ्रायास्थितेः पुनः । कि तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥१३३ पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुजे हाम्याहारमन्यथा ॥ १३४ अदेन्यासङ्गवैराग्यपरीषहकृते कृतः । अतएव यतीशानां केशोत्पाटनसद्विधिः ।। १३५ सूर्या? ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः । सन्ध्यासेवाग्निसत्कारो गेहदेहार्चनो विधिः ।। १३६ नदीनदसमद्रेषु मज्जनं धर्मचेतसा । तरुस्तूपाग्रभक्तानां वन्दनं भृगुसंधयः ।। १३७ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मूत्रस्य निषेवणम् । रत्नवाहनभूयक्षशस्त्रशैलादिसेवनम् ।। १३८ होनेपर अधोभागमें शौच क्यों नहीं करते हो ॥१३०।। भावार्थ-ब्राह्मण धर्ममें विहित कर्म करनेसे पहले शरीरकी शुद्धिके लिए तीन बार हाथसे जलपान किया जाता हैं। इसे ही आचमन कहते है । ग्रन्थकार कहते हैं कि शरीरका जो भाग अशुद्ध हो जलसे उसीकी शुद्धि करनी चाहिए, जलपान कर लेनेसे अशुद्ध शरीर कैसे शुद्ध हो सकता है? यदि मुख अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए और यदि कोई दूसरा अंग अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए । सबकी शुद्धि जलपान मात्रसे तो नहीं हो सकती । अत: आचमन करना व्यर्थ हैं । (अब मुनियोंकी नग्नताका समर्थन करते है-) विद्वान् लोग विकारसे द्वेष करते हैं, अविकारतासे नहीं। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक नग्नतासे किस बातका द्वेष? यदि मुनिजन पहिरनेके लिए वल्कल, चर्म अथवा वस्त्रकी इच्छा रखते हैं तो उनमें नैश्किचन्य मेरा कुछ भी नहीं हैं ऐसा भाव तथा अहिंसा कसे सम्भव है? अर्थात् वस्त्रादिककी इच्छा रखनेसे उससे मोह तो नबा ही रहा तथा वस्त्रके धोने वगैरहमें हिंसा भी होती ही हैं ।।१३१-१३२।। (अब मुनियोंके खडे होकर आहार ग्रहण करनेका समर्थन करते हैं-) बैठकर भोजन करनेसे स्वर्ग नहीं मिलता और न खडे होकर भोजन करनेसे नरकमें जाना पड़ता हैं । किन्तु मुनिजन प्रतिज्ञाके निर्वाहके लिए ही खडे होकर भोजन करते हैं ।।मुनि भोजन प्रारम्भ करनेसे पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि- 'जबतक मेरे दोनों हाथ मिले है और मेरेमें खडे होकर भोजन करनेकी शक्ति हैं तबतक में भोजन करूंगा अन्यथा आहारको छोड दूंगा । इसी प्रतिज्ञाके निर्वाहके लिए मुनि खडे होकर भोजन करते है ।। १३३१३४।। (अब केशलोंचका समर्थन करते हैं-) अदीनता, निष्परिग्रहपना, वैराग्य और परीषहके लिए मुनियोंको केशलोंच करना बतलाया हैं ॥१३५। भावार्थ-मुनियोंके पास एक दमडी भी नहीं रहती,जिससे क्षौरकर्म करा सकें, यदि दूसरेसे माँगते हैं तो दीनता प्रकट होती हैं, पासमें छुरा वगैरह भी नहीं रख सकते । और यदि केश बढाकर जटा रखते हैं तो उसमें जूं वगैरह पड जाती है इसलिए वह हिंसाका कारण है। इसके विपरीत केशलोंच करने में न किसीसे कुछ मांगना पडता है,न कोई हिंसा होती हैं, प्रत्युत उससे वैराग्यभाव दृढ होता हैं और कष्टोंको सहनेकी क्षमता बढती है, इसलिए मुनिगण केशलोंच करते हैं। अब आचार्य लोकमें प्रचलित मूढताओंका निषेध करते है- सूर्यको अर्घ देना,ग्रहणके समय स्नान करना,संक्रान्ति होनेपर दान देना,सध्या वन्दन करना अग्निको पूजना,मकान और शरीर. की पूजा करना, धर्म मान कर नदियों और समुद्र में स्नान करना, वृक्ष स्तूप और प्रथम ग्रासको नमस्कार करना, पहाडकी चोटीसे गिरकर मरना, गौके पृष्ठ भागको नमस्कार करना,उसका मूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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