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श्रावकाचार-संग्रह
समयान्तरपाखण्डवेदलोकसमाश्रयम् । एवमादिविमूढानां ज्ञेयं मूढमनेकधा !। १३९ वरार्थ लोकयात्रार्थमपरोधार्थमेव वा । उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ।। १४० क्लेशायैव क्रिशायैव क्रियामीष न फलावात्तिकारम् । यद्भवेन्मुग्धबोधानामूषरे कृषिकर्मवत्।।१४१ वस्तुन्येव भवेद्भक्तिः शुभारम्भाय भाक्तिके । नारत्नेषु रत्नाय भावो भवति भूतये ।। १४२ अदेवे देवताबद्धिमवते बतभावनाम् । अतत्त्वे तत्त्वविज्ञानमतो मिथ्यात्वमुत्पृजेत् ॥ १४३ तथापि यदि मूढत्वं न त्यजेत्कोऽपि सर्वथा । मित्रत्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ॥ १४४ न स्वतो जन्तवः प्रेर्यो दुरीहाः स्युजिनागमे । स्तव एवं प्रवृत्तानां तद्योग्यानुग्रहो मतः ।। १४५ शङ्काकाङ्क्षाविनिन्दान्यश्लाघा च मनसा गिरा । एते दोषाः प्रजायन्ते सम्यक्त्वक्षतिकारणम्॥१४६ पान करना, रत्न सवारी पृथ्वी यक्ष शस्त्र और पहाड आदि की पूजा करना, तथाधर्मान्तरके पाखण्ड वेद और लोकसे सम्बन्ध रखनेवाली इस प्रकारकी अनेक मूढताएँ जाननी चाहिएँ। वरकी आशासे या लोक रिवाजके विचारसे या दूसरोंके आग्रहसे इन मूढताओंका सेवन करनेसे सम्यग्दर्शनकी हानि होती हैं ।। जिस प्रकार अज्ञजनोंको ऊसर भूमिमें खेती करनेसे केवल क्लेश ही उठाना पडता हैं,फल कुछ भी नहीं निकलता, उसी तरह इन मूढताओंके करनेसे केवल क्लेश ही उठाना पडता हैं,फल कुछ भी नहीं निकलता ॥१३६.१४१॥ वस्तुमें की गई भक्ति ही शुभ कर्मका बन्ध कराती हैं जो रत्न नहीं हैं उसे रत्न माननेसे कल्याण नहीं हो सकता !! अदेवको देव मानना, अव्रतको व्रत मानना और अतत्त्वको तत्त्व मानना मिथ्यात्व हैं अतः इसे छोड देना चाहिए। फिर भी यदि कोई इन मूढताओंका सर्वथा त्याग नहीं करे (और सम्यक्त्वके साथ-साथ किसी मूढताका भी पालन करे) तो उसे सम्यमिथ्यादृष्टि चाहिए, क्योंकि सर्वनाश अच्छा नहीं । अर्थात् मिथ्यात्व सेवनके कारण उसके धर्माचरणका भी लोप कर देना अर्थात् उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना ठीक नहीं है।।१४२।।१४४।। भावार्थ-ऊपर जिन मूढताओंका उल्लेख किया हैं, उनमेंसे बहुत-सी मढताएँ आज भी प्रचलित हैं, और लोग धर्म मानकर उन्हें करते हैं, किन्तु उनमेंकुछ भी धर्म नहीं हैं। वे केवल धर्मके नामपर कमाने-खानेका आडम्बर मात्र हैं । ऐसी मूढताओंसे सबको बचना चाहिए । किन्तु यदि कोई कारणसे उन मूढताओंको पूरी तरहसे नहीं त्याग देता और अपने धर्माचरणके साथ उन्हें भी किये जाता हैं तो उसे एकदम मिथ्यादृष्टि न मानकर सम्यक् मिथ्यादष्टि माननेकी सलाह ग्रन्थकार देते है । वे उसके उस धर्माचरणका लोप नहीं करना चाहते, जो वह मढता पालते हुए भी करता है। ऐसा प्रतीत होता हैं कि ग्रन्थकारके समयके लोक-रिवाज या कामना-वश कुछ जैनोंमें भी मिथ्यात्वका प्रचार था और बहुतसे जैन उसे छोडने में असमर्थ थे। शायद उन्हें एक दम मिथ्यादृष्टि कह देना भी उन्हें उचित नहीं जंचा, इसलिए सम्यङमिथ्यादृष्टि कह दिया है, वैसे तो मिथ्यात्वसेवी जैन भी मिथ्यात्वी ही माने गये हैं। जिन मनुष्योंकी चेष्टाएँ या इच्छाएँ अच्छी नहीं है उन्हे जिनागममें स्वयं प्रेरित नहीं करना चाहिए । अर्थात् ऐसे मनुष्यों को जैनधर्ममें लानेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिए, किन्तु यदि वे स्वयं इधर आवे तो उनके योग्य अनुग्रह-साहाय्य कर देना चाहिए ।। १४५॥ ।
(अब ग्रन्थकार सम्यग्दर्शनके दोष बतलाते हैं-) शङ्का, कांक्षा, विनिन्दा और मन तथा वचनसे मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा करना, ये दोष सम्यग्दर्शनकी हानिके कारण हैं ।।१४६।।
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