SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १४५ अहमेको न मे कश्चिदस्ति त्राता जगत्त्रये । इति व्याधिवजोत्क्रान्तिभीति शङ्का प्रचक्षते ॥ १४७ एतत्तत्त्वमिदं तत्त्वमेतद्वतमिदं व्रतम् । एष देवश्च देवोऽयमिति शङ्कां विदु। पराम् ॥ १४८ इत्थं शतचित्तस्य न स्याद्दर्शनशुद्धता । न चास्मिन्नीप्सितावाप्तियथैवाभयवेदने ।। १४९ एष एव भवेद्दवस्तत्त्वमप्यतदेव हि । एतदेव व्रतं मक्त्यै तदेव स्यादशङ्कधीः ।। १५० तत्त्वे ज्ञाते रिपौ दृष्टे पात्रे वा समपस्थिते । यस्य दोलायते चित्तं रिक्तः सोऽमुत्र चेह च ॥१५१ अन्तस्तत्त्वविहीनस्य वृथा व्रतसमुद्यमः । पुंसः स्वभावभीरो: स्यान्न शौर्यायायुध ग्रहः ।। १५२ एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः।। १५३ उररीकृत निर्वाहसाहसोचितचेतसाम् । उभौ कामदुधौ लोको क र्तेश्चाल्पं जगत्त्रयम् ॥ १५४ क्षत्रपुत्रोऽक्षविक्षिप्तः शिक्षितादृश्यकज्जल: । अन्तरिक्षगति प्राप निःशङ्कोऽजनतस्करः ॥ १५५ स्यां देवः स्यामहं यक्षः स्यां वा वसुमतीपतिः । यदि सम्यक्त्वमाहात्म्यमस्तीतीच्छां परित्यजेत्।।१५६ उदश्वितेव माणिक्यं सम्यक्त्वं भवजैः सुखैः । विक्रीणान: पुमान्स्वस्य वञ्चक: केवलं भवेत्।।१५७ चित्ते चिन्तामणिर्यस्य यस्य हस्ते सुरद्रुमः । कामधेनुर्धने यस्य तस्य कः प्रार्थनाक्रमः ॥ १५८ इस पहले शंका दोषका वर्णन करते है-'मै अकेला हूँ,तीनों लोकोंमें मेरा कोई रक्षक नहीं है।' इस प्रकार रोगोंके आक्रमणके भयको शंका कहते है ।। अथवा यह तत्त्व है या यह तत्त्व है?' 'यह व्रत है या यह व्रत है?' 'यह देव हैं कि यह देव है?' इस प्रकारके संशयको शंकाकहते है। जिसका चित्त इस प्रकारसे शङ्कित - शङ्काकुल या भयभीत हैं उसका सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं हैं। तथा जैसे नपुंसक अपने मनोरथको पूरा नहीं कर सकता,वैसे ही उसे भी अभीष्टकी प्राप्ति नहीं हो सकती । 'यही देव है, यही तत्त्व है और इन्हीं व्रतोंसे मुक्ति प्राप्त हो सकती हैं। ऐसा जिसको दृढ विश्वास है वही मनुष्य निःशङ्क बुद्धिवाला हैं ।। किन्तु तत्त्वके जाननेपर, शत्रुके दृष्टि-गोचर होनेपर और पात्रके उपस्थित होने पर जिसका चित्त डोलता है, जो कुछ भी स्थिर नहीं कर सकता वह इस लोकमें भी खाली हाथ रहता है और परलोकमें भी खाली हाथ रहता हैं।।१४७१५१।। आत्मज्ञानसे शून्य मनुष्यका व्रताचरण का प्रयास व्यर्थ हैं । ठीक ही हैं जो मनुष्य स्वभाव से ही डरपोक हैं, शस्त्र ग्रहण करनेसे उसमें शौर्य नहीं आ जाता॥१५२।। ___'अकेली एक जिन-भक्ति ही ज्ञानीके दुर्गतिका निवारण करने में, पुण्यका संचय करने में और मुक्ति रूपी लक्ष्मीको देने में समर्थ हैं ।।१५३॥ 'जो अपनी प्रतिज्ञाका निर्वाह करने में उचित साहस दिखलाते हैं, इस लोक और परलोकमें वे इच्छित वस्तुको पाते है, तथा उनके यशसे तीनों लोक चलायमान हो जाते हैं ॥१५४।। अञ्जनचोर राजपुत्र था, किन्तु इन्द्रियोंकी विषयलालसाने उसे पागल कर दिया था। तब अदृश्य होनेका अञ्जन बनाना सीख लिया। फिर वह निःश होकर विद्याधर बन गया । और मुक्त हो गया ।।१५५।। (अब निष्काक्षित अंगको बतलाते हैं-) यदि सम्यग्दर्शनमें माहात्म्य है तो मैं देव होऊ', यक्ष होऊँ अथवा राजा हो इस प्रकारकी इच्छाको छोड देना चाहिए। जो सांसारिक सुखोंके बदलेमें सम्यक्त्वको बेच देता हैं वह छाछ के बदले में माणिक्यको बेच देने-वाले मनुष्यके समान केवल अपनेको ठगता है ।। ५६-१५७।। जिस सम्यदृष्टिके चित्तमें चिन्तामणि है, हाथमें कल्पवृक्ष हैं, धनमें कामधेनु हैं, उसको याचनासे क्या मतलब? जिसकी चित्तवृत्ति उचित स्थानको पाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy