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________________ १४२ श्रावकाचार-संग्रह एवमालोच्य लोकस्य निरालम्बस्य धारणे । कल्प्यते पवनो जैनरित्येतत्साहसं महत् ॥ १२२ यो हि वायुन शक्तोऽत्र लोष्ठकाष्ठादिधारणे । त्रैलोक्यस्य । कथं स स्याद्धारणावसरक्षम ॥१२३ तदसत। ये प्लावयन्ति पानीविष्टपं सचराचरम् । मेघास्ते वातसामात्कि न व्योम्नि समासते ।। १२४ आप्तागमपदार्थष्वपरं दोषमपश्यत: अमज्जनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता । मिथ्यादृशो वदन्त्येतन्मनेर्दोषचतुष्टयम् ॥ १२५ तत्रैष समाधिःब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ।। १२६ संगे कापालिकात्रेयीचाण्डालशबरादिभिः । आप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्जपेन्मन्त्रमपोषितः ॥ १२७ एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके । दिने शुद्धयन्त्यसंदेहमतौ व्रतगता: स्त्रियः ।। १२८ यदेवाङ्गमशुद्धं स्यादद्भि शोध्यं तदेव हि । अङ्गुलौ सर्पदष्टायां न हि नासा निकृत्यते ।।१२९ जगत् किसीके भी आधार नहीं है,तथा मच्छ, कच्छप, बासुकीनाग और शूकर इसके धारणकर्ता हो नहीं सकते। ऐसा विचार करके जैन लोग इस निरालम्ब जगत्का धारणकर्ता वायको मानते हैं। किन्तु यह उनका बडा साहस है, क्योंकि जो वायु हमारे देखने में ईंट पत्थर लकडी वगैरहका भी बोझ सम्हालने में असमर्थ है, वह तीनों लोकोंको धारण करने में कैसे समर्थ हो सकता है? ॥१२१-१२३।। किन्तु उसका यह आक्षेप ठीक नहीं है,क्योंकि जो मेघ पानीके द्वारा चराचर जगत्को जलमय बना देते हैं,वे वायुके द्वारा ही क्या आकाशमें नहीं ठहरे रहते? ॥१२४।। भावार्थआज कल तो हजारों टन बोझा लेजाने वाले वायुयान वायुके सहारे ही आकाशमें उडते हुए पाये जाते है । अतः वायुमें बडी शक्ति है और वही लोकको धारण करने में समर्थ है। मच्छ कछुवे आदिको जो पुराणोंमें पृथ्वीका आधार माना गया है वह विज्ञान सम्मत नहीं है । जैन आप्त; जैन आगम और उनके द्वारा कहे हुए पदार्थोमें अन्य दोष न पाकर मिथ्यादृष्टि लोग जैन मनियोंमें दोष लगाते हुए कहते हैं कि जैनोंके साधु स्नान नहीं करते, आचमन नहीं करते, नंगे रहते है और खडे होकर भोजन करते हैं। इन दोषोंका समाधान इस प्रकार हैं ॥१२५ । ब्रह्मचर्यसे यक्त और आत्मिक आचारमें लीन मुनियोंके लिए स्नानकी आवश्यकता नहीं है। हाँ, यदि कोई दोष लग जावे तो उसका विधान हैं । यदि मुनि हाथमें खोपडी लेकर मांगने वाले वाममार्गी कापालिकोंसे, रजस्वला स्त्रीसे, चाण्डाल और म्लेच्छ आदिसे छू जाये तो स्नान करके, उपवास पर्वक कायोत्सर्गके द्वारा मंत्रका जप करना चाहिए।।१२६-१२७।। भावार्थ-साधारणत: मनिके लिए स्नान करनेका निषेध है; क्योंकि मुनि अखण्ड ब्रह्मचारी होते है तथा आरम्भ आदिसे दूर रहते है। हाँ,यदि ऊपर कही गई कोई अशुद्धि हो जाये तो वे स्नान करके बादको उसका प्रायश्चित्त करते है। जो स्त्रियाँ व्रताचरण करती हैं,वे ऋतुकाल में एकाशन अथवा तीन दिनका उपवास करके चौथे दिन स्नान करके निःसन्देह शुद्ध हो जाती हैं ।।१२८।। (इस प्रकार मुनियोंके स्नान करनेका कारण बतलाकर ग्रन्थकार आचमन विधिकी आलोचना करते है-) शरीरका जो भाग अशद्ध हो, जलसे उसीकी शुद्धि करनी चाहिए। अंगुलिमें साँपके काट लेनेपर नाकको नहीं काटा जाता हैं ।।१२९।। अधोवायुका निस्सरण आदि करनेपर यदि मुखमें अपवित्रता मानते हो तो मुखके अपवित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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