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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १४१ - आत्मलाभ विदर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्यकम् ।। ११३ बन्धस्य कारणं प्रोक्तं मिथ्यात्वासंयमादिकम् । रत्नत्रयं तु मोक्षस्य कारणं संप्रकीर्तितम् ।। ११४ आप्तागमपदार्थानामश्रद्धानं विपर्ययः । संशयश्च त्रिधा प्रोक्तं मिथ्यात्वं मलिनात्मनाम् ।। ११५ अथवा। एकान्तसंशयाज्ञानं व्यत्यासविनया प्रयम् । भवपक्षाविपक्षत्वान्मिथ्यात्वं पञ्चधा स्मृतम् ॥ ११६ अवतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमतृप्तता। इन्द्रियेच्छानुवर्तित्वं सन्तः प्राहुरसंयमम् ।। ११७ कषाया: क्रोधमानाधास्ते चत्वारश्चतुविधाः । संसारसिन्धुसंपातहेतवः प्राणिनां मताः ।। ११८ मनोवाक्कायकर्माणि शुभाशुभविभेदतः । भवन्ति पुण्यपापानां बन्धकारणमात्मनि। ११९ निराधारो निरालम्बः पवमानसमाश्रयः । नभोमध्यस्थितो लोकः सृष्टिसंहारजितः ॥ १२० अथ मतम् .. नैव लग्नं जगत्क्वापि भूभूध्राम्भोधिनिर्भरम् । धातारश्च न यज्यन्ते मत्स्यकूमाहिपोत्रिणः ॥१२१ प्रकृति शब्दका अर्थ स्वभाव हैं । कर्मोमें ज्ञानादिको घातनेका जो स्वभाव उत्पन्न होता हैं, उसे प्रकृतिबन्ध कहते है । कोमें अपने अपने स्वभावको न त्यागकर जीवके साथ बंधे रहने के कालकी मर्यादाके पडनेको स्थितिबन्ध कहते हैं । उनमें फल देनेकी न्यूनाधिक शक्तिके होनेको अनुभाग बन्ध कहते हैं और न्यूनाधिक परमाणुवाले कर्मस्कन्धोंका जीवके साथ सम्बन्ध होनेको प्रदेशबन्ध कहते हैं । रागद्वेषादिरूप आभ्यन्तर मलके क्षय हो जानेसे जीवके स्व-स्वरूपकी प्राप्तिको मोक्ष कहते है। मोक्षमें न तो आत्माका अभाव ही होता हैं, न आत्मा अचेतन ही होता है और न वहां चैतन्य अनर्थक ही हैं । अर्थात् चेतन होने पर भी आत्मामें ज्ञानादिका अभाव नहीं होता है ॥ ११३ ।। मिथ्यात्व असंयम आदिको बन्धका कारण कहा हैं । तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयको मोक्षका कारण कहा हैं ।।११४।। मलिन आत्माओंमें पाये जानेवाले मिथ्यात्वके तीन भेद हैं- १. देव, शास्त्र और उनके द्वारा कहे गये पदार्थोका श्रद्धान न करना, २. विपर्यय और ३. संशय । अथवा मिथ्यात्वके पाँच भेद भी हैं-एकान्त मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व, विपर्यय मिथ्यात्व और विनय मिथ्यात्व । ये पाँचों प्रकारका मिथ्यात्व संसारका कारण हैं ॥११५-११६।। व्रतोंका पालन न करना,अच्छे कामोंमें आलस्य करना,निर्दय होना, सदा असन्तुष्ट रहना और इन्द्रियोंकी रुचिके अनुसार प्रवृत्ति करना इन सबको सज्जन पुरुष असंयम कहते है ।। १७।। क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे कषाय चार प्रकारकी कही है। इनमेंसे प्रत्येक के चार चार भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । ये कषायें प्राणियोंको संसाररूपी समुद्र में गिराने में कारण है ।।११८ । मन वचन और कायकी क्रिया शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। इनमेंसे शुभ क्रियाओंसे आत्माके पुण्यबन्ध होता हैं और अशुभ क्रियाओंसे पापबन्ध होता हैं ।।११९।। (इस प्रकार बन्धके कारण बतलाकर ग्रन्थकार लोकका स्वरूप कहते है-) यह लोक निराधार हैं, निरालम्ब है-कोई इसे धारण किये हुए नहीं हैं, केवल तीन प्रकारकी वायुके सहारेसे आकाशके बीचोबीच में यह ठहरा हुआ हैं । न इसकी कभी उत्पत्ति हुई है और न कभी विनाश ही होता हैं ।।१२०।। जैनोंकी इस मान्यतापर दूसरे आक्षेप करते हुए कहते हैं-पृथ्वी, पहाड, समुद्र आदिके भारसे लदा हुआ यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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