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________________ १४० श्रावकाचार-संग्रह ज्ञाता दृष्टा महान् सूक्ष्मः कृतिभुक्त्योः स्वयं प्रभुः । भोगायतनमात्रोऽयं स्वभावादूर्ध्वगः पुमान्।।१०४ ज्ञानदर्शनशन्यस्य न भेदः स्यादचेतनात् । ज्ञानमात्रस्य जीवत्वे नकधीश्चित्रमित्रवत् ।। १०५ प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्येत कर्मणा । एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविकसमानयोः ।। १०६ मन्त्रवन्नियतोऽप्येषोऽचिन्त्यशक्तिः स्वभावतः । अतः शरीरतोऽन्यत्र न भावोऽस्य प्रमान्वितः ।।१०७ सस्थावरभेदेन चतुर्गतिसमाश्रयाः । जीवा: केचित्तथान्ये च पञ्चमी गतिमाश्रिताः ।। १०८ धर्माधी नभः कालो पुद्गलश्चेति पञ्चमः । अजीवशब्दवाच्याः स्युरेते विविधपर्ययाः ।। १०१ गतिस्थित्यप्रतीघातपरिणामनिबन्धनम् । चत्वारः सर्ववस्तूनां रूपाद्यात्मा च पुद्गलः ।। ११० अन्योन्यानप्रवेशेन बन्धः कर्मात्मनों मतः । अनादिः सावसानश्च कालिकास्वर्णयोरिव ।। १११ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशप्रविभागतः । चतुर्धा निद्यते बन्धः सर्वेषामेव देहिनाम् ।। ११२ आत्मा सदा एक रूप ही रहेगा, न वह कर्ता हो सकेगा और न भोक्ता। यदि उसे कर्ता भोक्ता माना जायेगा तो वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगा । अतः प्रत्येक वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य मानना चाहिए। आत्माका स्वरूप-आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा हैं, महान् और सूक्ष्म हैं, स्वयं ही की और स्वयं ही भोक्ता है, अपने शरीरके बराबर है, तथा स्वभावसे ही ऊपरको गमन करनेवाला हैं ।। यदि आत्माको ज्ञान और दर्शनसे रहित माना जायेगा तो अचेतनसे उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। अर्थात जड और चेतन दोनों एक हो जायेंगे। और यदि ज्ञानमात्रको जीव माना जायेगा तो चित्र मित्रकी तरह एक बुद्धि नहीं बनेगी ।। १०४-१०५ ।। भावार्थ- जैसे चित्र और मित्र सेदो भिन्न परुष हैं उन्हें एक नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार ज्ञान और दर्शन गुणावले जीवको भी केवल मानरूप ही नहीं माना जा सकता । जीव कर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीवको प्रेरित करता हैं। इन दोनोंका सम्बन्ध नौका और नाविकके समान है । कोई तीसरा इन दोनोंका प्रेरक नहीं हैं ॥१०६।। जैसे मंत्रमें कुछ नियत अक्षर होते है,फिर भी उसकी शक्ति अचिन्त्य होती है उसी तरह यद्यपि आत्मा शरीर-परिमाणवाला है, फिर भी वह स्वभावसे ही अचिन्त्य शक्तिवाला हैं, अतः शरीरसे अन्यत्र उसका अस्तित्व प्रमाणित नहीं है ।।१०७॥ त्रस और स्थावरके भेदसे जीव दो प्रकारके हैं ; जो नरकगति, तिर्यञ्चगति मनुष्यगति,और देवगतिमें पाये जाते है। ये सब संसारी जीवोंके भेद है । और पञ्चम गतिको प्राप्त मुक्त जीव होते है ।। १०८ ॥ धर्म, अधर्म आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच अजीव द्रव्य कहलाते है । ये अनेक पर्यायोंवाले हैं ॥१०॥ धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंकी गतिमें निमित्त कारण हैं । अधर्म द्रव्य उनकी स्थितिमें निमित्त कारण है । आकाश सब वस्तुओंको स्थान देनेमे निमित्त हैं और काल सबके परिणमनमें निमित्त हैं । तथा जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते है, उसे पूदगल कहते है को आत्मा और कर्मका अन्योन्यानुप्रवेशरूप बन्ध होता है अर्थात् आत्मा और कर्म के प्रदेश परस्परमें मिल जाते हैं । स्वर्ण और कालिमाके बन्धकी तरह यह बन्ध अनादि और सान्त होता + अर्थात जैसे सोने में खानसे ही मैल मिला रहता हैं और बादमें मैलको दूर करके सोने को शुद्ध कर लिया जाता है वैसे ही जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि होने पर भी सान्त है, उसका अन्त हो जाता हैं। यह बन्ध चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध,अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध । यह चारों प्रकारका बन्ध सभी शरीरधारी जीवोंके होता है ॥१११-११२॥ भावार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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