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________________ ८० श्रावकाचार-संग्रह द्विर्वाच्यौ ताविमौ शब्दो बोध्यन्ती मन्त्रवेदिभिः । मन्त्रशेषोऽप्ययं तस्मादनन्तरमदीर्यताम् ।। ४५ कालश्रमणशब्दं च द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्रणे ततः । स्वाहेति पदमुच्चार्य प्राग्वत्काम्यानि चोद्धरेत् ।। ४६ चणिः- सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, निर्ग्रन्थाय नमः, वीतरागाय नमः, महावताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः,महायोगाय नमः, विविधयोगाय नमः विविधर्धये नमः,अङ्गधराय नमः, पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नमः अनुपमज ताय नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मुनिमन्त्रोऽयमाम्नातो मुनिभिस्तत्त्वदभिः । वक्ष्ये सुरेन्द्र मन्त्रं च यथा स्साहर्षभी श्रुतिः ।। ४७ प्रथमं सत्यजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः स्यादर्हज्ज ताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ।। ४८ ततश्च दिव्यजाताय स्वाहेत्येवमुदाहरेत् । ततो दिव्यार्चजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् ।। ४९ ब्याच्च नेमिनाथाय स्वाहेत्येतदनन्तरम् । सौधर्माय पदं चास्मात्स्वाहोक्त्यन्तमनुस्मरेत् ।। ५० कल्पाधिपतये स्वाहापदं वाच्यमत: परम । भूयोऽप्यनुचरायादि स्वाहाशब्दमुदीरयेत् ।। ५१ ततः परम्परेन्द्राय स्वाहेत्युच्चारयेत्पदम् । सम्पेठदहमिन्द्राय स्वाहेत्येतदनन्तरम् ।। ५२ ततः परमाईताय स्वाहेत्येतत पदं पठेत । ततोऽप्यनपमायति पदं स्वाहापदान्वितम ।। ५३ 'नमो नमः' पद कहना चाहिए । अर्थात् 'परमर्षिभ्यो नमो नमः' (परमऋषियोंको बार-बारनमस्कार हो) । तत्पश्चात् 'अनुपमजाताय नमोनमः' (अनुपम जन्मके धारक जिनदेवको नमस्कार हो) यह मन्त्र बोले ॥४३।।अन्तमें मन्त्रवेत्ता लोक सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि, भूपति,नगरपति और कालश्रमण इन पदोंको दो-दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा पदका उच्चारण करें। यथा-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, भूपते भूपते, नगरपते नगरपते, कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, भूपति, नगरपति, कालश्रमण, मै तेरे लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ। ) पश्चात् पूर्ववत् काम्यमन्त्र पढे ॥४४-४६।। उपर्युक्त सर्व ऋषिमन्त्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । ये सर्वऋषिमन्त्र तत्त्वदर्शी ऋषियोंने कहे है । अब आगे ऋषभदेव-प्रणीत श्रुतिके अनुसार सुरेन्द्र मन्त्रों को कहता हूँ।।४७॥ सर्वप्रथम ही 'सत्यजाताय स्वाहा' ( सत्यजन्म लेनेवाले को हव्य समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्रपद बोले । तदनन्तर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' अर्हन्तके योग्य जन्म लेनेवालेको हव्य समर्पणकरता हूँ। ) यह परम पद पढना चाहिए ॥४८॥ पुनः दिव्यजाताय स्वाहा' (दिव्य जन्म लेनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद बोले । पुनः 'दिव्याय॑जाताय स्वाहा' (दिव्य तेजःस्वरूप जन्म लेनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे ॥४९।। तदनन्तर 'नेमिनाथाय स्वाहा' (नेमिनाथके लिए, अथवा धर्मचक्रकी धुरीके स्वामी जिनदेवके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह मन्त्र बोले । इसके पश्चात् सौधर्माय स्वाहा (सौंधर्मेन्द्रके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) इस पद का स्मरण करे ।।५।। पूनः 'कल्पाधिपतये स्वाहा' (स्वर्गके अधिपतिके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद बोलना चाहिए। पुन: 'अनुचराय स्वाहा' (इन्द्र के अनुचरके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद उच्चारण करे ॥५१॥ तत्पश्चात् 'परम्परेन्द्राय स्वाहा' (परम्परासे होनेवाले इन्द्रवर्ग के लिए हव्य समर्पण करता हूँ यदू पद बोले । तदनन्तर 'अहमिद्राय स्वाहा (अहमिन्द्रवर्गके लिए हव्य समर्पण करता ह) यह पद पढे ॥५२॥ पुनः 'परमार्हताय स्वाहा' (परम आईनके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । तदनन्तर 'अनुपमाय स्वाहा' (उपमा-रहित देवके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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