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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन स्याद्देवब्राह्मणायेति स्वाहेत्यन्तमतः पदम् सुब्राह्मणाय स्वाहान्तः स्वाहान्ताऽनुपमायगीः ।। ३५ सभ्यग्दृष्टिपदं चैव तथा निधिपति श्रुतिम् । ब्रूयाद् वैश्रवणोक्ति च द्विःस्वाहेति ततः परम् ॥ ३६ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयाद् पूर्ववन्मन्त्रविद् द्विजः । ऋषिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽहोपासकश्रुतिः ॥ ३७ चूणिः- सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा,षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादि श्रोत्रियाय स्वाहा,स्नातकाय स्वाहा,श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरण भवतु । कृषिमन्त्रः- प्रथम सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । गण्हीयादहज्जाताय नमः शब्दं ततः परम् ॥ ३८ निर्ग्रन्थाय नमो वीतरागाय नम इत्यपि । महावताय पूर्व च नमः पदमनन्तरम् ।। ३९ त्रिगप्ताय नमो महाय गाय नम इत्यतः । ततो विविधयोगाय नम इत्यनुपठ्यताम् ।। ४० विविद्धिपदं चास्मानमः शब्देन योजितम् । ततोऽङ्गधरं पूर्वञ्च पठेत् पूर्वधरध्वनिम् ।। ४१ नमः शब्दपरौ चेतौ चतुर्थ्यन्त्यावनस्मतौ । ततो गणधरायेति पदं युक्तनमःपदम् ।। ४२ परषिभ्य इत्यस्मात्परं वाच्यं नमो नमः । ततोऽनुपमजाताय नमो नम इतीरयेत् ॥ ४३ सम्यग्दृष्टिपदं चान्ते बोध्यन्तं द्विरुवाहरेत् । ततो भूपतिशब्दश्च नागरोपपदः पतिः ॥ ४४ अनादि श्रोत्रियाय स्वाहा' (अनादिकालिक श्रुत के अध्येताको यह हव्य समर्पण करता हूँ ) । तदनन्तर 'स्नातकाय स्वाहा' (स्नातक अर्हन्तके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ), 'श्रावकाय स्वाहा' (श्रावकके लिए हव्य समर्पण करता हूँ),ये दो मन्त्र बोले ॥३४॥ तत्पश्चात् 'देवब्राह्मणाय स्वाहा' (देव ब्राह्मणके लिए हव्य समर्पण करता हूँ), 'सुब्राह्मणाय स्वाहा' (सुव्राह्मणके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) और 'अनुपमाय स्वाहा' (अनुपम देवके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) ये पद बोलना चाहिए ॥३५।। तदनन्तर सम्यग्दृष्टि, निधिपति और वैश्रवण शब्दका दो दो बार सम्बोधन कर अन्तमें स्वाहा पद बोले । यथा-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, निधिपते निधिपते, वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा' (हे सम्यग्दृष्टि और निधियोंके स्वामी कुबेर, मै तुम्हें यह हव्य समर्पण करता हूँ) ॥३६।। तत्पश्चात् मन्त्रवेत्ता द्विज पूर्ववत् काम्यमन्त्र बोले । उपर्युक्त सर्व निस्तारकमन्त्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । अब इससे आगे उपासकाध्ययनशास्त्रके अनुसार ऋषिमन्त्र कहता हूँ ।।३७॥ वे ऋषिमन्त्र इस प्रकार हैं-प्रथम ही 'सत्यजाताय नमः' (सत्यजन्मके धारक जिनदेवको नमस्कार हो) यह पद बोले । तत्पश्चात् 'अर्हज्जाताय नमः' 'अर्हन्तरूप जन्मके धारक देवको नमस्कार हो) इस पदका उच्चारण करे।।३८।। तदनन्तर 'नर्ग्रन्थाय नमः ' (निर्ग्रन्थगरुको नमस्कार हो) 'वीतरागाय नमः' (वीतराग देवको नमस्कार हो), 'महाब्रताय नमः (महाव्रत-धारी को नमस्कार हो), 'त्रिगुप्ताय नमः' (तीन गुप्तियोंके धारकको नमस्कार हो) महायोगायनमः (महान् योगके धारकको नमस्कार हो),और विविधयोगाय नमः' (अनेक प्रकारके योगोंके धारकको नमस्कार हो),ये मन्त्र पढना चाहिए।।३९-४०।। पुनः विविद्धि आदि शब्दोंकी चतुर्थी विभक्तिके साथ 'नमः' पद बोले-'विविधर्द्धये नमः' (विविध ऋद्धियोंके धारकके लिए नमस्कार हो), तदनन्तर 'अंगधराय नमः' (अंगोंके पारगामीको नमस्कार हो), 'पूर्वधराय नमः' (पूर्व धारियोंको नमस्कार हो), और ‘गणधराय नमः' (गणधरदेवके लिए नमस्कार हो ।।४१-४२।। पुनः 'परमर्षिभ्यः'इस पदसे परे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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