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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४७ सद्रव्याद्रव्ययोर्मध्ये य: पात्रं प्राप्य भक्तित: । ददानः कथ्यते दाता न दाता भक्तिजितः ॥ ३४ पात्रे ददाति योऽकाले तस्य दानं निरर्थकम् । क्षेत्रेऽप्युप्तं विना कालं कुत्र बीजं प्ररोहति ॥ ३५ काले ददाति योऽपात्रे वितीणं तस्य नश्यति । निक्षिप्तमषरे बीजं कि कदाचिदवाप्यते ।। ३६ प्रक्रमेण विना बन्ध्यं वितीर्ण पात्रकालयोः । फलाय किमसंस्कारं विक्षिप्तं क्षेत्रकालयोः ।। ३७ कलं पात्रं विधि ज्ञात्वा दत्तं स्वल्पमपि स्फुटम् । उप्तं बीजमिव प्राविधत्ते विपुलं फलम् ॥ ३८ देयं स्तोकादपि स्तोकं व्यपेक्षो न महोदयः । इच्छानुसारिणी शक्ति: कदा कस्य प्रजायते ॥ ३९ श्रुत्वा दानमतिर्यो भण्यते वीक्ष्य मध्यमः । श्रुत्वा दृष्ट्वा च यो दत्ते दानं स च जघन्यकः ॥४० ताडनं पीडनं स्तेयं रोषणं षणं भयम। कत्वा ददाति यो दानं सदाता नमतो जिनः।। पटीयसा सदा दानं प्रदेयं प्रियवादिना । प्रियेण रहितं दत्तं परमं वैरकारणम् ॥ ४२ यः शमापाकृतं वित्तं विधाणयति दुर्मतिः । कलि गृहातिः मूल्येन दुनिवारमसो ध्रुवम् ।। ४३ जीवा येन विहन्यन्ते येन पात्रं विनाश्यते । रागो विवर्धते येन यस्मात्सम्पद्यते भयम् ॥ ४४ आरम्भा येन जन्यते दुःखितं यच्च जायते । धर्मकामन तद्देयं कदाचन निगद्यते ।। ४५ हलविदार्यमाणायां गभिण्यामिव योषिति । म्रियन्ते प्राणिनो यस्यां सा भू: किं ददतः फलम् ।।४६ ही देगा ।।३३।। सधन और निर्धन इन दो प्रकारके दातारोंके मध्य में जो पात्रको पाकर भक्ति पूर्वक दान देता है, वही दाता कहा जाता है। भक्ति-रहित होकरके देनेवाला दाता नहीं कहा जाता है।॥३४॥ जो असमयमें पात्रको दान देता हैं, उसका दान निरर्थक है, खेतके भीतर असमयमें बोया गया बीज कहाँ अंकुरित होता है ।। ३५।। जो अपात्रको समयपर भी दान देता है,उसका वह दान न नष्ट हो जाता हैं। क्योंकि ऊसर भूमिमें बोया गया बीज क्या कभी प्राप्त होता हैं ।।३६।। योग्य पात्रको और योग्य समयमें विधिके विना दिया दान निष्फल जाता हैं। क्या संस्कार-रहित बीज योग्य क्षेत्र में योग्य समयपर बोनेपर भी फल के लिये होता हैं? अर्थात् फल नहीं देता है ॥३७॥ काल, पात्र और विधिको जानकर बुद्धिमानोंके द्वारा दिया गया अति अल्प भी दान योग्य भूमिमें ठीक समयपर विधिवत् बोये गये अल्प भी बीजके समान विपुल फलको देता है।३८।। नहीं शक्ति हो, तो भी कमसे कम ही दान देते रहना चाहिए, किन्तु अधिक धनके होने की अपेक्षा नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इच्छाके अनुसार दान देने की शक्ति कब किसके पूरी होती हैं? भावार्थ-जब जैसी सामर्थ्य हो उसके अनुसार दानको देते रहना चाहिए ॥३९।। ' साधुको आया हुआ सुनकर दान देने में बुद्धि करने वाला पुरुष उत्तम दाता कहा जाता है। साधुको देखकर दान देनेवाला पुरुष मध्यम दाता कहलाता है। और जो सुनकर और देखकर पीछे दान देता हैं वह जघन्य दाता कहलाता हैं ।।४०।। जो ताडन, पीडन, चोरी, रोष,दोष और भय करके दान देता है, जिनदेवने उसे दाता नहीं माना है ।।४१।। चतुर पुरुषोंको प्रिय वचन बोलते हुए ही सदा दान देना चाहिए। क्योंकि प्रिय वचनसे रहित दिया गया दान तो परम वैरका ही कारण होता हैं ॥४२।। जो दुर्बुद्धि पुरुष शम भावसे रहित होकर धनको देता हैं, वह निश्चयसे मूल्य देकर दुनिवार पापको ग्रहण करता हैं ॥४३॥ अब दान देने के योग्य देय वस्तुका निर्णय करनेके पूर्व आचार्य दान में नहीं देने योग्य वस्तुओंका निरूपण करते हैंजिसके देनेसे जीव मारे जावें, जिससे पात्रका विनाश हो, जिससे रागभाव बढे, जिससे भय उत्पन्न हो, जिससे आरम्भ बढे और जिससे दुःख पैदा हो, ऐसी वस्तुएं धर्मकी कामना करनेवाले गृहस्थों के द्वारा कभी भी देय नहीं कही गई है ॥४४-४५।। जिस भूमिके हलोंसे विदारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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