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________________ ३४६ श्रावकाचार-संग्रह शरदभ्रसमाकारं जीवितं यौवन धनम् । यो जानाति विचारज्ञो दत्ते दानं स सर्वदा ।। २० यो न दत्ते तपस्विभ्यः प्रासुकं दानमञ्जसा । न तस्यात्मम्भरेः कोऽपि विशेषो विद्यते पशोः ॥२१ गहं तदुच्यते तुङ्ग तय॑न्ते यत्र योगिनः निगद्यते परं प्राज्ञैः शारवं घनमण्डलम् ।। २२ धौतपादाम्भस्सा सिक्तं साधूनां सौधमुच्यते । अपरं कर्दमालिप्तं मयंचातकबन्धनम् ।। २३ स गही मण्यते भव्यो यो दत्ते दानमञ्जसा। न परो गेहयुक्तोऽपि पतत्त्रीय कदाचन ।। २४ कि द्रव्येण कुबेरस्य कि समुद्रस्य वारिणा। किमन्धसा गृहस्थस्य भक्तिर्यत्र न योगिनाम् ।। २५ ध्यानेन शोभते योगी संयमेन तपोधनः । सत्येन वचसा राजा गृही दानेन चारुणा ॥ २६ तपोधनं गृहायातं यो न गृहाति भक्तितः । चिन्तामणि करं प्राप्त स कुधीस्त्यजति स्फुटम् ।। २७ विद्यमानं धनं धिष्ण्ये साधुभ्यो यो न यच्छति । स वञ्चति मूढात्मा स्वयमात्मानमात्मना ।।२८ स भण्यते गृहस्वामी यो भोजयति योगिनः । कुर्वाणो गृहकर्माणि परं कर्मकरं विदुः ।। २९ यः सर्वदा क्षुधां धृत्वा साधुवेलां प्रतीक्षते । स साधूनामलाभेऽपि दानपुण्येन युज्यते ॥ ३० भवने नगरे ग्रामे कानने दिवसे निशि । यो धत्ते योगिनश्चिते दत्तं तेभ्योऽमुना ध्रुवम् ॥ ३१ यः सामान्येन साधनां दानं दातुं प्रवर्तते । त्रिकालगोचरास्तेन भोजिताः पूजिता: स्तुताः ॥३२ दत्ते दूरेऽपि यो गत्वा विमृश्य व्रतपालिनः । स स्वयं गृहमायाते कथं दत्ते न योगिनि ।। ३३ भंगुर जानता है, वही विचारशील दाता सदा ही दान देता है ॥२०॥ जो गृहस्थ तपस्वियोंके लिए प्रासुक दान नहीं देता है, उसका अपना पेट भरनेवाले पशुसे निश्चयतः कोई भी भेद नहीं हैं ॥२॥ जिस घर में साधुजन दान द्वारा तृप्त किये जाते है, वही ऊँचा घर कहा जाता हैं । दान रहित घरको तो ज्ञानियोंने शारदीय मेघमण्डल कहा है ।।२२।। साधुओंके चरण-कमलोंके धोये गये जलसे जो घर संसिक्त है, वही सौध कहा जाता है, अन्य घर तो मनुष्यरूप चरनेवाले पशके बाँधने का कीचडलिप्त स्थान है ।।२३।। वही भव्य गृहस्थ कहा जाता हैं, जो नियमसे दान देता है। दान-रहित अन्य पुरुष तो गृह-युक्त होनेपर भी पक्षीके समान कदाचित् भी गेही अर्थात घरवाला नहीं कहा जा सकता ।।२४।। जहाँपर योगियोंका भोजन पान नहीं, ऐसे कुबेरके द्रव्यसे क्या समुद्रके जलसे क्या और गृहस्थके अन्न-पानसे क्या लाभ हैं ।।२५।। योगी ध्यानसे, तपोधन संयम से, राजा सत्य वचनसे और गृहस्थ सुन्दर दानसे शोभा पाता है ॥२६॥ जो गृहस्थ स्वयं घर आये हुए तपोधन साधुको भक्तिसे पडिगाहता नहीं हैं, वह हाथमें आये हुए चिन्तामणि रत्नको निश्चय ही छोडता है।।२७।। जो श्रावक घरमें विद्यमान भी धनको साधुओंके लिए नहीं देता हैं, वह मूढात्मा स्वयं ही अपने आपके द्वारा अपनेको ठगता हैं ।।२८।। जो योगियोंको भोजन कराता हैं, वही पुरुष गृहका स्वामी कहा जाता है। दानके बिना घरके कार्योंको करनेवालोंको तो घरवा कर्मकर (नौकर) कहते हैं !॥२९॥ जो गृहस्थ भूख लगनें पर भोजन करनेके पूर्व साधुओंके आहारकी वेलामें उनके आगमनकी प्रतीक्षा करता हैं,वह साधओंके अलाभ होने पर भी दानके पुण्यसे संयुक्त होता है ।।३०।। जो पुरुष भवन में, नगरमें, ग्राममें, वनमें, दिनमें, और रात्रिमें योगियोंको अपने चित्तम धारण करता हैं, अर्थात् उनका सदा स्मरण करता रहता हैं, उसने साधुओंको निश्चयसे दान दिया,ऐसा जानना चाहिए ।।३।।। जो सामान्यतः सदा ही साधुओंको दान देने में प्रवृत्त होता हैं उसने त्रिकालवर्ती साधुओंको भोजन कराया, उनकी पूजा और स्तुति की ऐसा समझना चाहिए ॥३२।। जो दूर जाकर और व्रती पूरुषोंका अन्वेषण करके उन्हें दान देता हैं, यह स्वयं ही घरमें आये योगीको कैसे दान नहीं देगा? अवश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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