SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४५ त्रिधाऽपि याचते किंचिद्यो न सांसारिक फलम् । ददानो योगिनां दानं भाषन्ते तमलोलपम् ॥८ स्वल्पवित्तोऽपि यो दत्ते भक्तिभारवशीकृतः । स्वाढचाश्चर्यकरं दान सात्त्विकं तं प्रचक्षते ।। ९ कालष्यकारणे जाते निवारे महीयसि । यो न कुप्यति केभ्योऽपि क्षमकं कथयन्ति तम् ॥१० सर्वैरलंकृतो वो जघन्यो वजितो गुणः । मध्यमोऽनेकधाऽवाचि दाता दानविचक्षणः ॥ ११ विनीतो धार्मिकः सेव्यस्तत्कालक्रमवेदकः । जिनेशशासनाभिज्ञो भोगनिःस्पहमानसः ।। १२ दयालः सर्वजीवानां रागद्वेषादिवजितः । संसारासारतावेदी समदर्शी महोद्यमः ॥ १३ परोषहसहो धीरो निजिताक्षो विमत्सरः । 'परात्मसमयाभिज्ञः प्रियवादी निरुत्सुकः ॥ १४ वासितो वतिनां पूतैः परासाधारणैर्गुणैः । लोकलोकोत्तराचारविचारी सङ्घवत्सलः ।। १५ आस्तिक्यो निरहङ्कारो वैयावृत्यपरायणः । सम्यक्त्वालङ्कृतो दाता जायते भुवनोत्तमः ।। १६ आत्मीयं मन्यते द्रव्यं यो दत्तं वतवतिनाम् । शेषं पुत्रकलत्राद्यैस्तस्करैरिव लुण्ठितम् ।। १७ यो लोकद्वितये सौख्यं कुर्वते मम साधवः । गन्धवा दारुणं दुःखमिति पश्यति चेतसा ।। १८ योऽत्रैव स्थावरं वेत्ति गृहकार्ये नियोजितम् । सहगामि परं वित्तं धर्मकार्ये यथोचितम् ॥ १९ जो योगिजनोंको दान देते हुए भी किसी भी सांसारिक फलकी कुछ भी याचना मन वचन कायसे नहीं करता है, उसे अलुब्धता गुण-युक्त दान कहते है ।।८।। जो अल्पधनी हो करके भी भक्तिभारसे नम्रीभूत श्रावक धनियोंको भी आश्चर्यकारी दान देता है, उसे सत्त्वगणसे यक्त दाता कहते है ।।९।। किसी महान दुनिवार कालुष्य कारणके उपस्थित होने पर भी जो किसी पर भी कुपित नहीं होता हैं, उसे क्षमागुणसे युक्त दाता कहते है ॥१०॥ दाताके इन सातों गुणोंसे संयुक्त दाताको दानशास्त्रके विद्वानोंने उत्तम दाता कहा हैं । इन गुणोंसे रहित दाताको जघन्य दाता कहा है तथा दो, तीन, चार आदि गुणवाले अनेक प्रकारके दाताको मध्यम दाता कहा है ।।११। अब दाताके कुछ और भी विशेष गुण कहते हैं-जो विनीत हो, धर्मात्मा हो, अन्य पुरुषोंसे सेव्य हो, दानके कालक्रमका वेत्ता हो, जिनेन्द्रदेवके शासनका ज्ञाता हो, जिसका मन भोगोंसे निःस्पह हो, सर्वजीवोंपर दया करने वाला हो, राग-द्वेषादिसे रहित हो, संसारकी असारताका जानकार ही, समदर्शी हो, महान् उद्यमी हो, परीषहोंको सहनेवाला हो, धीर वीर हो, इन्द्रियजयी हो, मत्सर-रहित हो, अपने और परके सिद्धान्तका ज्ञाता हो, प्रियवादी हो, विषयोंके सेवनमें उत्सुकता-रहित हो,दूसरे लोगोंमें नहीं पाये जानेवाले ऐसे असाधारण पवित्र व्रतियोंके गुणोंसे जिसका चित्त संवासित हो, लौकिक और लोकोत्तर आचारका विचारक हो, संघर्म वात्सल्य भावका धारक हो, आस्तिक हो, अहंकार-रहित हो, वैयावृत्य करने में तत्पर हो और सम्यक्त्वसे अलंकृत हो, ऐसा दाता लोकमें उत्तम माना जाता हैं ।।१२-१६॥ व्रतियोंके लिए दिये गये द्रव्यको जो अपना मानता हो और शेष द्रव्यको पत्र-स्त्री आदि लुटेरोंके द्वारा लूटा गया जैसा मानता हो, वही दाता श्रेष्ठ जानना चाहिए ॥१७.। ये साधुजन तो मेरे दोनों लोकोंमें सुख करने वाले हैं और ये बन्धुजन दोनों लोकोंमें दुःख करनेवाले हैं, ऐसा जो अपने हृदयसे देखता हो, वही दाता प्रशंसाके योग्य हैं ।।१८।। जो गृह-कार्यमें लगाये गये धनको यहीं रहनेवाला जानता है और धर्मकार्य में यथोचित लगाये धनको अपने साथ जानेवाला मानता है, वही यथार्थमें दाता हैं ।।१९।। जो जीवन योवन और धन को शरद् ऋतुके मेघोंके समान क्षण१. म. 'वरात्मट' पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy