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________________ ३४४ श्रावकाचार-संग्रह क्रियां पक्षोद्भवां मूढश्चतुर्मासमवां च यः । विधत्तेऽक्षमयित्वाऽसौ न तस्याः फलमश्नुते ॥ १०७ देवनरायः कृतमुपसर्ग बन्दनकारी सहति समस्तम् । कम्पनमुक्तो गिरिरिव धीरो दुष्कृतकर्मक्षपणमवेक्ष्य ।। १०८ इत्थमदोषं सततमनूनं निर्मलचित्तो रचयति नूनम् । यः कृतिकर्मामितगतिदृष्टं पानि स नित्यं पदमनदृष्टम ॥ १०९ इत्यमितगत्याचार्यप्रणीते श्रावकाचारे अष्टमः परिच्छेदः । नवमः परिच्छेदः दानं पूजा जिनः शीलमुपवासश्चतुर्विधः । श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ।। १ धान वितरता वात्रा देयं पात्रं विधिर्मतिः । फलैषिणाऽवबोध्यानि धीमता पञ्च तत्त्वतः ॥ २ भाक्तिकं तौष्टिकं श्राद्धं सविज्ञानमलोलुपम् । सात्त्विक क्षमकं सन्तो दातारं सप्तधा विदुः ॥ ३ यो धर्मधारिणां दत्ते स्वयं सेवापरायणः । निरालस्योऽशठः । शान्तो भाक्तिकः स मतो बुधः ॥४ तुष्टिदत्तवतो यस्य ददतश्च प्रवर्तते । देयासक्तमतेः शृद्धास्तमाहुस्तौष्टिकं जिनाः ।। ५ साधूभ्यो वदता दानं लभ्यते फललीप्सितम् । यस्यैषा जायते श्रद्धा नित्यं श्राद्धं वदन्ति तम् ॥ ६ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं भावं सम्यग्विचिन्त्य यः । साधुभ्यो ददते दानं सविज्ञानमिमं विदुः ॥ ७ फलको नहीं पाता हैं ।।१०७।। वन्दनादि आवश्यक करनेवाला पुरुष देव,मनुष्यादिके द्वारा किये गये सभी उपसर्गको अपने द्वारा किये गये खोटे कर्मोंका क्षय देखकर कम्पन-रहित पर्वत के समान धीरवीर होकर सहन करता है ।।१०८।। इस प्रकार जो निर्मल चित्त होकर कृतिकर्मको करके नित्य सम्पूर्ण विधि पूर्वक निर्दोष वन्दनादि आवश्यक कर्म करता हैं, वह अमित ज्ञानियों के द्वारा देखे गये और हमारे अदष्ट ऐसे नित्य मोक्ष पदको प्राप्त करता हैं ।।१०९।। इस प्रकार अमितगति विरचित श्रावकाचारमें आठवां परिच्छेद समाप्त हुआ। जिनदेवने दान पूजा शील और उपवास यह चार प्रकारका धर्म श्रावकोंके संसार-कान्तारको जलानेके लिए अग्निके समान कहा हैं ।।१॥ दानको देनेवाले और उसके फलको चाहनेवाले वद्धिमान् श्रावकको दाता, दानयोग्य वस्तु, पात्र, विधि और बुद्धि ये पाँच बातें यथाथरीतिसे जानना चाहिए ॥२।। सर्व प्रथम दाताका स्वरूप कहते हैं-सन्त पुरुषोंने दाताको भक्तिमान्, सन्तोषी, श्रद्धा युक्त, दान देनेके ज्ञानसे सहित,लोलुपता रहित, सात्त्विक और क्षमाशील इन सात गणोंवाला कहा हैं ।।६।। जो बुद्धिमान् श्रावक आलस्यरहित और शान्त है तथा धर्म धारकोंकी सेवामें स्वयं ही तत्पर रहता है, उसे ज्ञानीजनोंने भक्ति गुणसे युक्त दाता कहा है ।।४। जिसके चित्त में पहले दिये गये दानमें और अभी वर्तमानमें दिये जानेवाले दान में सन्तोष हैं और देय वस्तुमें जिसकी बुद्धि लोभ-रहित है ऐसे दातारको वीनरागी जिनदेवोंने सन्तोष गुणसे युक्त दाता कहा हैं ।।५।। साधुओं को दान देनेवाला सदा ही अभीष्ट फल पाता हैं ऐसी दृढ श्रद्धा जिसके हृदयमें नित्य रहती हैं, उस श्रावकको श्रद्धागुणसे युक्त दाता कहते हे ॥६॥ जो बुद्धिमान् श्रावक द्रव्य क्षत्र काल भावका भली भाँतिसे विचार करके साधुओंके लिए दान देता है, उसे विज्ञान गुण-युक्त दाता कहते हैं।७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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