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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४३ निष्ठीवनं वपुस्पर्शः प्रपञ्चबहला स्थितिः । मूत्रोदितविधेरूनं वयोपेक्षादिवर्जनम् ॥ ९६ कालापेक्षाव्यतिक्रान्तिाक्षेपासक्तचित्तता। लोभाकुलितचित्तत्त्वं पापकार्योद्यमः परः ॥ ९७ कृत्याकृत्यविमूढत्वं द्वात्रिंशदिति सर्वथा । कायोत्सर्गविधेर्दोषास्त्याज्या निर्जरणाथिमिः॥ ९८ समाहितमनोवृत्तिः कृतद्रव्यादिशोधनः । विविक्तं स्थानमासाद्य' कृतेर्यापथशोधनः ॥ ९९ गर्वादिवन्दनां कृत्वा पर्यङ्कासनमास्थितः । विधाय वन्दनामुद्रां सामान्योक्तनमस्कृतिः ।। १०० ऊर्ध्वः सामायिकं स्तोत्रं स मुक्ताशुक्तिमुद्रकः । पठित्वाऽऽवतिताव? विदधाति तनूत्सृतिम् ॥ १०१ कृत्वा जैनेश्वरी मुद्रां ध्यात्वा पञ्चनमस्कृतिम् । उक्त्वा तीर्थंकरस्तोत्रमुपविश्य यथोचितम् ।। १०२ चैत्यभक्ति समुच्चार्य भूयः कृत्वा तनूत्सृतिम् । उक्त्वा पंचगुरुस्तोत्रं कृत्वा ध्यानं यथाबलम्॥१०३ विधाय वन्दनां सूरेः कृतिकर्मपुरस्सराम् । गृहीत्वा नियमं शक्त्या विधत्ते साधुवन्दनाम् ॥ १०४ आवश्यकमिदं प्रोक्तं नित्यं व्रतविधायिनाम् । नैमित्तिकं पुनः कार्य यथागममतन्द्रितैः ।। १०५ येन केन च सम्पन्न कालुष्यं देवयोगतः । क्षमयित्वैव तं त्रेधा कर्तव्याऽवश्यकक्रिया ।। १०६ कायोत्सर्ग करना ग्रीवाधोनयन दोष है २२। कायोत्सर्ग करते समय थूकना निष्ठीवन दोष हैं २३। कायोत्सर्ग करते समय शरीरके अंगोंका स्पर्श करना वपुःस्पर्शनदोष है २४। छ ल-प्रपंचके भावोंके साथ कायोत्सर्ग करना प्रपचबहुलदोष हैं २५। आगमोक्त विधिसे हीन कायोत्सर्ग करना विधिन्यून दोष हैं २६। अपनी आयुकी अपेक्षा न करके मात्रासे अधिक कायोत्सर्ग करना वयोपेक्षादिवर्जन दोष है २७। कायोत्सर्गके कालकी अपेक्षाका उल्लंघन कर कायोत्सर्ग करना कालापेक्षब्यतिक्रान्तिदोष है २८। मनके क्षोभ कारक कार्योंमें चित्त लगाते हुए कायोत्सर्ग करना व्याक्षेपासक्त चित्त दोष हैं २९। लोभसे आकुलित चित्त होकर कायोत्सर्ग करना लोभाकुलित दोष है ३०। पाप कार्य में उद्यमशील होते हुए कायोत्सर्ग करना पाप कार्योद्यम दोष है ३१॥ कर्त्तव्यअकर्तव्य के ज्ञानसे रहित पुरुषका कायोत्सर्ग करना मूढदोष हैं ३२॥ कर्मनिर्जरा करनेके इच्छक मुमुक्षु जनोंको कायोत्सर्ग विधि के ये बत्तीस दोष सर्वथा त्यागने योग्य है ।।८८-८९।।। जिसको चित्तवृत्ति समाधानको प्राप्त हैं और जिसने द्रव्य क्षेत्रादिकी भली-भाँतिसे शुद्धि की हैं, ऐसा श्रावक एकान्त स्थानको प्राप्त होकर और ईर्यापथ शुद्धि करके गुरु आदिकी वन्दना करके पर्यकासनसे बैठकर वन्दनामुद्रा करके सामान्य रीतिसे नमस्कारमंत्र पढ पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करे । पुनः खडा होकर सामायिकस्तोत्र पढकर मुद्राशुक्तिमुद्रा धारण करके आवर्त क्रिया कर कायोत्सर्ग करे। पुन: जैनेश्वरी मुद्रा धारण कर पंच नमस्कारमंत्रका ध्यानकर और तीर्थङ्करस्तोत्रको पढकर यथोचित आसनसे बैठकर, चैत्यभक्तिका उच्चारण कर पुनः कायोत्सर्ग करके और फिर भी कायोत्सर्ग करके पंचपरमेष्ठिस्तोत्र पढकर और अपने बलके अनुसार ध्यान करके कृतिकर्म पूर्वक आचार्यकी वन्दना करके और अपनी शक्तिके अनुसार भोग-उपभोगका नियम करके अन्तमें साधु-वन्दना करे। यह आवश्यक नित्य प्रति व्रतधारी श्रावककों के लिए कहा गया है। तथा नैमित्तिक आवश्यक भी आगमानुसार आलस्यरहित होकर करना चाहिए ॥९९१०५॥ दैवयोगसे जिस किसी भी पुरुष के द्वारा जिस किसी भी निमित्तसे चित्तमें कलुषता उत्पन्न हो जाय, तो उसे मन वचन कायसे क्षमा करा करके ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिए ।।१०६।। जो मढ पाक्षिक या चातुर्मासिक क्रियाको क्षमा-याचना किये विना ही करता हैं, वह उसके १. मु. 'मास्थायः पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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