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________________ पूरापार्थसिद्धपाय योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ।। ७२ यानि तु पुनर्भवेयः कालोच्छिनत्राणि शुष्काणि मजतस्तान्यपि हिंसाविशिष्टरागादिरूपास्यात् ॥७३ अष्टावनिष्ट दुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवज्यं । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥ ७४ धर्मर्माहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिसामसहास्त्रसहिसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥ ७५ कृतकारितानुमननैर्वाक्काय मनोभिरिष्यतेनवधा | औत्सर्गिकी निवृत्तिविचित्ररूपापवादिकीत्वेषा ।। ७६ स्तो केन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् शेषस्थावरमारणविरमणमपिभवतिकरणीयम् ७७ अमृतत्व हेतुभूतं परममहिसा रसायनं लब्ध्वा अवलोक्यबालिशानामसमञ्जसमाकुलैर्नभवितव्यम् ॥ ७८ सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोऽस्ति । इति धर्ममुग्ध हृदयेन जातु भूत्वा शरीरिणो हिस्याः।। ७९ पिलकर, बड और पीपलके फल सजीवकी योनि है, इसलिए उनके भक्षण में उनके भीतर रहने वाले सजीवोंकी हिंसा होती है ॥७२॥ | और सूखे हुए पाँचों उदुम्बरफल समय पाकरत्रस जीवोंसे रहित हो जाते है, उनको भी खानेवाले पुरुषके विशिष्ट रागादिरूप हिंसा होती हैं । (क्योंकि उक्त फलोंके सूखने पर उनके भीतर रहनेवाले प्राणी भी उसीमें सूखकर मर जाते हैंऔर उन फलोंके खानेपर उन मरे हुए त्रसजीवोंका शरीर भी खाने से बचाया नहीं जा सकता है 1 ) || ७३ ॥ उपर्युक्त मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फल, आठों ही पदार्थ अनिष्ट दुस्तर पापोंके स्थान हैं, अतः इनको छोड़कर ही शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म की देशना के पात्र होते है ॥७४॥ जो मनुष्य 'अहिंसारूप धर्म है' इस बात को सुनते हुए भी सर्वप्रकारकी हिंसा के परित्यागके लिए असमर्थ हों, उन्हें भी कमसे कम सहिंसा को छोडना ही चाहिए ।। ७५ ।। इस हिंसा की औत्सर्गिक निवृत्ति कृत, कारित, अनुमोदनासे मन, वचन, कायके द्वारा नव प्रकारकी कही गई है । किन्तु अपवादरूप निवृत्ति अनेक रूप कही गई हैं ||७६ ॥ भावार्थ - हिंसाको मनसे, वचनसे और कायसे न स्वयं करना, न दूसरोंसे कराना और न करते हुए जीवों की अनुमोदना करना यह औत्सर्गिक निवृत्ति हैं, क्योंकि इसमें नवकोटियोंसे हिंसाका त्याग किया गया है। यह सर्वप्रकारके आरम्भ समारम्भके त्यागी मुनिजनोंके होती हैं । किन्तु नवकोटि हिंसाका परित्याग करनेमें असमर्थ है, उन गृहस्थोंके त्रियोगसे स्वयं हिंसा न करने के रूपमें तीन प्रकारसे, तथा स्वयं न करने और न दूसरोंसे कराने रूप छह प्रकारसे जो हिंसाका त्याग होता हैं, अथवा अपने पद और परिस्थिति के अनुरूप यथासंभव प्रकारोंसे हिंसाका त्याग होता हैं, वह सब अपवादिकी निवृत्ति कहलाती हैं । प्राप्त हुए योग्य विषयोंके सेवन करनेवाले गृहस्थोंको थोडेसे एकेन्द्रिय जीवोंके घातके अतिरिक्त शेष स्थावर जीवोंके मारनेसे भी विरमण अवश्य करना चाहिए । अर्थात् प्राप्त भोगोपभोगोंके सेवनमें अपरिहार्य एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा के शिवाय शेष सभी स्थावर हिंसाका परित्याग करना गृहस्थको आवश्यक हैं । ७ ।। अमृतपद मोक्षके कारणभूत परम अहिंसाधर्मरूप रसायनको पाकरके अज्ञानी जनोंके असंगत वहारको देखकर ज्ञानियोंको आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिए ॥७८॥ भावार्थ- किसी जीवको हिंसा करते हुए भी सुखसातारूप देखकर और स्वयंको अहिंसा धर्मका पालन करते हुए भी दुखी देखकर, तथा मिथ्या दृष्टियों द्वारा हिंसा-धर्मका प्रचार करते हुए भी उनकी सुख- साताकी वृद्धिको देखकर ज्ञानी पुरुष मनमें आकुलताका अनुभव न करें, किन्तु उनके पापानुबन्धी पुण्यका उदय जानकर अपने धर्म में स्थिर रहें । 'भगवत्प्रणीत धर्म सूक्ष्म है, धर्म - कार्यके लिए जीव हिंसा करने में कोई दोष नहीं हैं', इस प्रकार धर्म-विमूढ हृदयवाले होकर मनुष्योंको कभी किसी प्राणीकी Jajn Education International १०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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