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________________ १०६ श्रावकाचार-संग्रह मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति। ६२ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥ ६३ अभिमानभयजुगुप्सा-हास्यरतिशोककामकोपाद्याः । हिसाया:पर्यायाः सर्वेऽपिच सरकसन्निहिताः॥६४ नविना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यतेयस्मातामांसं भजतस्तस्मात्प्रसरत्यनिवारिताहिंसा॥६५ यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः ! तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ।। ६६ आमास्वपि पववास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम्॥६७ आमां वां पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।। ६८ मधुशकलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके। भजति मधु मूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ।। ६९ स्वयमेव विगलितंगण्हीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात ॥७० मधु मद्यं नवनीतं च महाविकृतयस्ताः । वल्भ्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ।। ७१ पीडनरूप क्रियाको हिंसा कहते हैं और हिंसासे प्राप्त होनेवाले दुःख हिंसाके फल है। हिंसाका त्याग करनेके इच्छुकजनोंको प्रथम ही प्रयत्नपूर्वक मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंको छोडना चाहिए ॥६१॥ मदिरा मनको मोहित करती है, और मोहित-चित्त पुरुष धर्मको भल जाता है। धर्मको भूला हुआ जीव पुनः निःशङ्क होकर हिंसाका आचरण करता है ।।६२।। इसके अतिरिक्त मदिरा अनेक (असंख्य) रसज जीवोंकी योनि कही गई हैं,अतः मद्यका सेवन करने वाले जीवोंके द्वारा उन रसज जीवोंकी हिंसा अवश्य ही होती है ।।६३।। अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य,अरति, शोक,काम, क्रोध आदिक सभी विकारी भाव हिंसाके पर्यायवाची नाम हैं। ये सभी विकारी भाव मदिराके समीपवर्ती ही है । अर्थात् मदिरा पीने वाले पुरुषकेये सभी विकारी भाव उत्पन्न होते है ॥६४॥ अतः मद्य सर्वथा त्याज्य है। यतः प्राणिघात के बिना मांसकी उत्पत्ति संभव नहीं है, अतः मांसको सेवन करनेवाले पुरुषके अनिवार्यरूपसे हिंसा होती ही है ॥६५॥ और जो स्वयं ही मरे हुए भैंसे, बैल आदिका मांस है,उसके सेवन करने में भी उस मांसके आश्रित निगोदिया जीवोंके विनाशसे हिंसा होती है ।।६६।। कच्ची,पक्की या पक रही मांसकी पेशियों (डालियों) में तज्जातीय निगोदिया जीबोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है ।।६७।। अतः जो जीव कच्ची या पकी मांस-पेशीको खाता है, अथवा स्पर्श भी करता है, वह अनेक कोटि जीवोंके निरन्तर संचित पिंडको मारता है अतः मांस सर्वथा अभक्ष्य है ।।६८।। इस लोकमें मधुका कण भी प्रायः मधुमक्खियों की हिंसारूपही होता हैं, अतः जो मूढ बुद्धि पुरुष मधुको खाता है, वह अत्यन्त हिंसक हैं॥६९।। जो पुरुष मधुके छत्तेसे स्वयमेव गिरी हुई मधुको ग्रहण करता हैं, अथवा धुंआ आदि करके उन मधु-मक्खियोंको उडाकर छलसे मधुको निकालता है, उसमें भी मधु-छत्तेके भीतर रहने वाले छोटे-छोटे जीवोंके घातसे हिंसा होती ही हैं ।।७०।। अतः मधु भी भक्षण करने के योग्य नहीं है। मध, मद्य, नवनीत (लोणी, मक्खन) और मांस ये चारों महा विकृतियाँ है,क्योंकि इन चारोंमें ही उसी वर्णवाले असंख्य जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते है । तथा ये सभी काम-क्रोधादि विकारोंको उत्पन्न करती है, अतः व्रती पुरुषको इनका भक्षण नहीं करना चाहिए ।।७१॥ ऊमर, कठमर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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