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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय १०५ कस्यापिदिशति हिंसा हिंसा फलमेकमेव फलकाले । अन्यस्य संव हिंसा विशय हसा फलं विपुलम् ॥ ५६ हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा विशत्यहि साफलं नान्यत् ॥ ५७ विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मागमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्र सञ्चाराः॥ ५८ अत्यन्त निशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम ॥ ५९ अवध्य हिस्य - हिंसक हिंसा-हिंसाफलानि तत्वेन । नित्यमवगूहमानै निजशक्त्या त्यज्यतहिंसा ६० मद्यं मां क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरत कामे तव्यानि प्रथममेव ॥ ६१ हिंसा करके पीछे उदयकाल में फल पाता हैं । कोई जीव हिंसा करने का आरम्भ करके भी किसी कारणवश उसे नहीं कर पाता हैं, तो भी आरम्भजनित बन्धका फल उसे अवश्य ही भोगना पडता है, अर्थात् हिंसा न करने पर भी हिंसाका फल प्राप्त होता हैं। इस प्रकार जीवोंको कषायरूप भावों के अनुसार ही हिंसाका फल मिलता हैं । एक जीव हिंसाको करता हैं, परन्तु फल भोगने के भागी बहुत होते हैं । इसी प्रकार किसी हिंसाको अनेक पुरुष करते हैं, किन्तु हिंसाके फलका भोक्ता एक ही पुरुष होता हैं ॥ ५५ ॥ भावाथ किसी जीवको मारते हुए देखकर जो दर्शक लोग हर्षका अनुभव करते हैं, वे सभी उस हिंसाके फलके भागी होते हैं इसी प्रकार युद्ध आदिमें हिंसा करने वाले तो अनेक होते है, किन्तु उनको आदेश देनेवाला अकेला राजा ही उस हिंसाके फलको भोगता है । किसी पुरुषको तो हिंसा उदयकाल में एकही हिंसाके फलको देती है और किसी पुरुषको वही हिंसा अहिंसाके विपुल फलको देती हैं ।। ५६ ।। भावार्थ - किसी वनमे ध्यानस्थ साधुको कोई सिंह उन्हें खानेके लिए उनपर आक्रमण करता हैं । उसी समय कोई सूकर मुनिकी रक्षा करने के भाव से उस सिंह पर आक्रमण करता है। दोनों आपस में लढकर मरण को प्राप्त होते है । उनमें से सिंह तो मुनको खानेके भावसे हिंसक हैं, अतः उसके फलसे नरकमें जाता हैं । पर सूकर मुनि-रक्षा के भावसे सिंहके साथ युद्ध करते और उसे मारते हुए भी अहिंसाके विशाल फलको पाता हैं, अर्थात् स्वर्ग में जाकर महाऋद्धिधारक देव होता है । किसी पुरुषकी अहिंसा उदयकालमें हिंसा के फलको देती है, तथा अन्य पुरुषकी हिंसा फलकाल में अहिंसा के फलको देती है, अन्य फलको नहीं ॥५७॥ भावार्थ-कोई जीव किसी जीवके बुरा करनेका यत्न कर रहा हो, परन्तु उस जीवके पुण्योदय से कदाचित् बुराई के स्थान पर भलाई हो जावे, तो भी बुराईका यत्न करनेवाला उसके फलका भागी होगा । इसी प्रकार कोई डॉक्टर अच्छा करनेके लिए किसीका आपरेशन कर रहा हो और कदाचित् वह रोगी मर जाय, तो भी डॉक्टर अहिंसाभागके फलको ही प्राप्त होगा, हिंसाके फलको नहीं प्राप्त होगा । इस प्रकार अत्यन्त कठिन और अनेक भंगोंसे गहन वनमें मार्ग - मूढ दृष्टिवाले जनोंको विविध प्रकारके नयचक्र संचारके जानकार गुरुजन ही शरण होते है ।। ५८ ।। भावार्थजिनोपदिष्ट विविधप्रकारके आपेक्षिक कथनका रहस्य जानना नयोके विशिष्ट ज्ञानी गुरुजमों के बिना सम्भव नहीं है । जिनेन्द्रदेवका अत्यन्त तीक्ष्णधारवाला दुःसाध्य नयचक्र, उसे धारण करनेवाले अज्ञानी पुरुषोंके मस्तक को शीघ्रही खण्ड-खण्ड कर देता है ॥५९॥ भावार्थ जैन दर्शनके नयोंका रहस्य अति गन है । जो उसे समझे विना उसका उपयोग करता है, वह अपना ही अहित कर बैठता हैं । आत्म-संरक्षण में सावधान पुरुषोंको तत्त्वतः हिंस्य हिंसक हिंसा और हिंसाके फलको जानकर अपनी शक्ति से अनुसार नित्य ही हिंसा छोडना चाहिए ॥ ६० ॥ भावार्थ जिनकी हिंसा की. जाती है, उन जीवोंको हिस्य कहते हैं । हिंसा करने वाले जीव हिंसक कहलाते है । प्राणियोंके प्राण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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