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________________ १०४ श्रावकाचार-संग्रह निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स हि करणालसो बाल: ।। ५. अविधायापि हि हिसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ ५१ एकस्याल्पा हिसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।।५२ एकस्य सैव तीवं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य। व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ।। ५३ प्रागेव फलति हिसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ।। ५४ एकः करोति हिसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसा हिंसाफलभग भवत्येकः।।५५ करता है,वह अज्ञानी बाहिरी क्रियाओंमें आलसी होकर अपने करण-चरणरूप शद्धोपयोगका घात करता है ।।५०॥ भावार्थ-जो पुरुष केवल अन्तरंग भावरूप हिंसाको ही हिंसा मानकर बाहिरी हिंसादि पापोंका त्याग नहीं करता है,वह निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रकारकी अहिंसासे रहित हैं। कोई जीव हिंसाको नहीं करके भी हिंसाके फलका भागी होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसाके फलका भागी नहीं होता।।५१।। भावार्थ-जिसके परिणाम हिंसारूप हुए है, चाहे वह हिंसाका कोई कार्य कर न सके,तो भी वह हिंसाके फलको भोगेगा । तथा जिस जीव के शरीरसे किसी कारण हिंसा तो गयी, किन्तु परिणामोंमें हिंसक भाव नहीं आया, तो वह हिंसा के फलका भोक्ता नहीं हैं। किसी जीवके तो की गयी थोडी-सी भी हिंसा उदय-कालमें बहुत फलको देती हैं और किसी जीवके बडी भारी भी हिंसा उदय-कालमें अल्प फलको देती हैं ।।५२।। भावार्थ-जो पुरुष किसी कारणवश बाह्य हिंसा तो थोडी कर सका हो,परन्तु अपने परिणामोंको हिंसा भावसे अधिक संक्लिष्ट रखनेके कारण तीव्र बन्ध कर चुका हो, ऐसे पुरुषके उसकी अल्प हिंसा भी फलकालमें अधिक ही बरा फल देगी। किन्तु जो पुरुष परिणामोंमें हिंसाके अधिक भाव न रखकर अचानक द्रव्यहिंसा बहत कर गया है, वह फलकालमें अल्पकलका ही भागी होगा। एक साथ दो व्यक्तियोंके द्वारा मिल करके की गयी भी हिसा उदयकालमें वित्रिचताको प्राप्त होती हैं । अर्थात् वही हिंसा एक के तीव्र फल देती हैं और दूसरेको मन्द फल देती हैं ।।५३।। भावार्थ-यदि दो पुरुष मिलकर किसी जीवकी हिंसा करें, तो उनमेंसे जिसके परिणाम तीव्र कषायरूप हुए हैं,उसे हिंसाका फल अधिक भोगना पडेगा और जिसके मन्दकषायरूप परिणाम रहे हैं,उसे अल्पफल भोगना पडेगा। कोई हिंसा करने के पहले ही फल देती हैं और कोई हिंसा करते हुए ही फल देती हैं,कोई हिंसा कर चकने पर फल देती हैं और कोई हिसा करनेका आरम्भ करके न करनेपर भी फल देती है। इस प्रकार हिंसा कषाय भावोंके अनसार फल देती हैं ।।५४।। भावार्थ-किसी जीवने हिंसा करनेका विचार किया, परन्तु अवसर न मिलनेके कारण वह हिंसा न कर सका, उन कषाय परिणामोंके द्वारा बँधे हए कर्मोका फल उदयमें आ गया,पीछे इच्छित हिंसा करनेको समर्थ हुआ,तो ऐसी दशामें हिंसा करनेसे पहले ही उस हिंसाका फल भोग लिया जाता हैं। इसी प्रकार किसी ने हिंसा करनेका विचार किया और उस विचार-द्वारा बाँधे हुए कर्मोके फलको उदयमें आनेकी अवधि तक वह उस हिंसाको करने में समर्थ हो सका, तो ऐसी दशामें हिंसा करते समय ही उसका फल भोगता हैं । कोई जीव पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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