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________________ २१. श्रावकाचार-संग्रह धूमवनिर्वमेत्पापं गुरुबीजेन् तादृशा । गण्हीयादमृतं तेन तद्वर्णेन मुहुर्मुहुः ।।६९९ संन्यस्ताभ्यामधोध्रिभ्यामूर्वोरुपरि युक्तितः । भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्मवीरसुखासनम् ।। ७०० तत्र सुखासनस्येदं लक्षणम्गुल्फोत्तानकराङ्गुष्ठरेखारोंमालिनासिकाः । समदृष्टिः समाः कुर्यानातिस्तब्धो न वामनः ।।७०१ तालत्रिभागमध्याङ्घिः स्थिरशीर्षशिरोऽधरः । समनिष्पन्दपायॆग्रजानुभ्र हस्तलोचनः ।। ७०२ न खात्कृलिन कण्डूतिनौष्ट भक्तिर्न कम्पितिः । न पर्वगणितिः कार्यानोक्तिरन्दोलितिः स्मितिः।।७०३ न कुर्याद्दूरदृक्पातं मैव केकरवीक्षणम् । न स्पन्दं पक्ष्ममालानां तिष्ठेन्नासाग्रदर्शनः ॥ ७०४ विक्षेपाक्षेपसंमोहदुरीहरहिते हृदि । लब्धतत्त्वे करस्थोऽयमशेषो ध्यानजो विधिः ।। ७०५ चिन्तन करता है । फिरे उन सोलह पत्रोंपर 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः' इ सोलह अक्षरोंका ध्यान करता हैं और कमलकी कणिकापर 'हँ' का ध्यान करता है फिर 'ह' की रेफसे निकलती हुई धूमकी शिखाका चिन्तन करता है। फिर उसमें से निकलते हुए स्फुलिंगोंका चिन्तन करता है। फिर उसमें से निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंका और उन लपटोंके द्वारा हृदयस्थित कमलको जलता हुआ चिन्तन करता है। उस कमलके जल चुकनेके पश्चात् शरीरके बाहर बडवानलकी तरह जलती हुई अग्निका चिन्तन करता है । यह प्रज्वलित अग्नि उस नाभिस्थ कमलको और शरीरको भस्म करके जलानेके लिए कुछ शेष न रहनेसे स्वयं शान्त हो जाती है ऐसा चिन्तन करता हैं । अब मारुती धारणाको कहते हैं-फिर योगी आकाशको पूरकर विचरते हुए महावेगशाली और महाबलवान वायुमण्डलका चिन्तन करता है। उसके बाद ऐसा चिन्तन करता हैं कि उस महावायुने शरीरादिककी सव भस्मको उडा दिया है। आगे वारुणी भारणाको कहते हैं-फिर वह योगी बिजली गर्जन आदि सहित मेघोंके समूहसे भरे हुए आकाशका चिन्तन करता है। फिर उनको बरसते हुए चिन्तन करता हैं। फिर उस जलके प्रवाहसे शरीरादिकी भस्मको बहता हुआ चिन्तन करता है। अब तत्त्वरूपवती धारणाको कहते है-फिर वह योगी पूर्ण चन्द्रमाके समान निर्मल सर्वज्ञ आत्माका चिन्तन करता हैं। फिर वह ऐसा चिन्तन करता है कि वह आत्मा सिंहासनपर विराजमान हैं, दिव्य अतिशयोंसे सहित हैं और देवदानव उसकी पूजा कर रहे हैं। फिर वह उसे आठ कर्मोसे रहित पुरुषाकार चिन्तन करता हैं । यह तत्त्व-रूपवती धारणा है। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानका अभ्यासी योगी शीघ्र ही मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेता है। उक्त श्लोकके द्वारा ग्रन्थकारने इन्हीं धारणाओंका कथन किया हैं। उस प्रकारके बीजाक्षर हैं' से धमकी तरह पापको नष्ट करना चाहिए । अर्थात् आग्नेयी धारणामें हें की रेफसे निकलती हई धूमशिखाका चिन्तन करनेसे धूमकी तरह पापका क्षय होता हैं । तथा उस अमृत वर्णअकारसे बारबार अमृतको ग्रहण करना चाहिए ।।६९९।। भावार्थ-'अर्ह' पदका ध्यान करे। ध्यानके समय 'है' के द्वारा पापका विनाश होता हुआ चिन्तन करे और अलंकारसे अमृत को ग्रहण करे। ध्यानके आसनोंका स्वरूप-जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनोंसे नीचे दोनों पिण्डलियोंपर रखकर बैठा जाता हैं उसे पद्मासन कहते है । जिसमें दोनों पैर दोनों दोनों घुटनोंके हिस्सेपर रखकर बैठा जाता है अर्थात बायीं ऊरूके ऊपर दायाँ पेर और दायीं ऊरूके ऊपर बायाँ पैर रखा जाता है उसे वीरासन कहते हैं। और जिसमें पैरोंकी गाँठे बराबर में रहती है उसे सुखासन कहते हैं ।।७००॥ पैरोंकी गाँठोपर बायीं हथेलीके ऊपर दायीं हथेलीको सीधा रखे। अँगूठोंकी रेखा,नाभिसे निकलकर ऊपरको जानेवाली रोमावली और नाक एक मीधमें हों। दृष्टि सम हो । शरीर न एकदम तना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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