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________________ ४६२ श्रावकाचार-संग्रह एस कमो णायवो सम्वविहीणं भणिज्जमाणाणं । एवं णाऊण फुडं ण पमाओ होइ कायम्वो॥३६१ पंचमिउववासविहिं किच्चा देविंद-चक्रवद्वित्ते। भोत्तूण दिव्वमाए पच्छा पाउणदि णिश्वाणं । ३६२ रोहिणीव्रत-वर्णन विहिणा गहिऊण विहि रोहिणिरिक्खम्मि पंच वासाणि । पंच य मासा जाव उ' उपवासं तम्मि रिक्खम्मि ॥ ३६३ काऊणुज्जवणं पुण पुत्वविहाणेण होइ कायव्वं । णवरि विसेसोपडिमा कायव्वा वासुपुज्जस्स ।। ३६४ तस्स फलेणित्थी वा पुरिसो सोयं ण पिच्छइ कया वि। भोत्तूण विउलभोए पच्छा पाउणइ णिव्वाणं ।। ३६५ अश्विनीव्रत-वर्णन गहिऊणस्सिणिरिक्खम्मि विहिं रिक्खेसु सत्तवीसेसु । रिक्खं पडि एक्केक्को उववासो होइ कायम्वो ।। ३६६ एवं काऊण विहि सत्तीए जो करेइ उज्जवणं । भुत्तूणब्भुदयसुहं सो पावइ अक्खयं सुक्खं ।। ३६७ सौख्यसम्पत्तिव्रत-वर्णन एया पडिवा वीया उ दुण्णि तोया उ तिण्णि चउत्थीओ' । चत्तारि पंच य छट्ठीउ छठेव ।। ३६८ सत्तेव सत्तमीओ अट्ठम्मिओ य गव य णवमीओ। दस दसमीओ य तहा एयारस एयारसीओ य ।। ३६९ किसी कारणवश एक या दो उपवास न किये जा सके हों, तो मूलसे अर्थात् प्रारम्भ से लेकर पुन: वही उपवास विधि करना चाहिए ।। ३६० ॥ यह क्रम आगे कहे जाने वाले सभी व्रत-विधानोंका जानना चाहिए, ऐसा भले प्रकार जानकर कभी भी ग्रहण किये गये व्रतमें प्रमाद नहीं करना चाहिए ।। ३६१ ॥ श्रावक इस पंचमीव्रत के उपवास-विधानको करके देवेन्द्र और चक्रवत्तियों के दिव्य भोग भोगकर पीछे निर्वाण पदको प्राप्त करता है ।। ३६२ ।। रोहिणी नक्षत्र में विधिपूर्वक व्रत-विधिको ग्रहणकर पाँच वर्ष और पाँच मास तक उसी नक्षत्र में उपवासको ग्रहणकर, पुनः अर्थात् व्रतपूर्ण होने के पश्चात् पूर्वोक्त विधानसे उसका उद्यापन करना चाहिए । यहाँ केवल विशेषता यह है कि प्रतिमा वासुपूज्य भगवान की बनवाना चाहिए ।। ३६३-३६४ ।। इस रोहिणी व्रतके फलसे स्त्री हो या पुरुष, वह कभी भी शोकको नहीं देखता है, अर्थात् उसका जीवन रोगशोक-रहित सुखसे व्यतीत होता है और वह विपुल भोगोंको भोगकर पीछे निर्वाण-सुखको प्राप्त होता है ।। ३६५ ॥ अश्विनी नक्षत्र में व्रत-विधि को ग्रहणकर पुनः सत्ताईस नक्षत्रोंमें प्रत्येक अश्विनी नक्षत्रपर एक-एक उपवास करना चाहिए । इस प्रकार अश्विनी व्रतको विधिको करके जो अपनी शक्तिके अनुसार उद्यापन करता है, वह अभ्यदय अर्थात् स्वर्गके सुखको भोगकर अक्षय मुक्तिसुखको प्राप्त करता है ।। ३६६-३६७ ।। प्रतिपदा आदिक तिथियोंमें यथोक्त संख्याके क्रमसे प्रति पदका एक, द्वितीयाके दो, तृतीयाके तीन, चतुर्थीके चार, पंचमीके पाँच, षष्ठीके छह, सप्तमीके सात, अष्टमीके आठ. नवमीके नौ, दशमीके दस एकादशी के ग्यारह, द्वादशीके बारह्, त्रयोदशीके १ झ. जाओ। २ शोकं । ३ ब चोत्थीओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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