________________
वसुनन्दि-प्रावकाचार
कारक्लेशका वर्णन आयंबिल णिब्वियडी एयटाणं छट्टमाइखवणेहिं जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयव्वो।३५१(१) मेहाविणरा एएण चेव बुझंति' बुद्धिविहवेण । ण य मंदबुद्धिणो तेण कि पि वोच्छामि सविसेसं ॥
पंचम व्रतका वर्णन आसाढ कत्तिए फग्गुणे य सियपंचमीए गुरुमूले । गहिऊण विहि विहिणा पुव्वं काऊण जिणपूजा ।
पडिमासमेक्कखमणेण जाव वासाणि पंच मासा य ।
अविच्छिण्णा कायव्वा मुत्तिसुहं जायमाणेण ।। ३५४ अवसाणे पंच घडाविऊण पडिमाओ जिणवरिदाणं । तह पंच पोत्थयाणिय लिहाविऊणं ससत्तीए ।। तेसि पइट्ठयाले जं कि पि पइट्ठजोग्गमुवयरणं । तं सव्वं कायव्वं पत्तेयं पंच पंच संखाए ॥ ३५६ सहिरण पचकलसे पुरओ वित्थरिऊण वत्थमहे । पक्कण्णं बहुभेयं फलाणि विजिहाणि तह चेव ।। दाणं च जहाजोगं दाऊण चउम्विहस्स संघस्स। उज्जवणविही एवं कायव्वा देसविरयेण ।। ३५८
उज्जवणविही ण तरइ काउं जड को वि अत्थपरिहीणो। तो विउणा कायव्वा उववासविही पयत्तेण । ३५९ जइ अंतरम्मि कारणवसेण एक्को व दो व उपवासा' ।
ण कओ तो मूलाओ पुणो वि सा होइ कायव्वा ॥ ३६० आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान (एकाशन), चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास, षष्ठ भक्त अर्थात् वेला, अष्टमभक्त अर्थात् तेला आदिके द्वारा जो शरीरको कृश किया जाता है, उसे कायक्लेश जानना चाहिए ।। ३५१ । बुद्धिमान् मनुष्य तो इस संक्षिप्त कथनसे ही अपनी बुद्धिके वैभव द्वारा कायक्लेशके विस्तृत स्वखपको समझ जाते हैं । किन्तु मन्दबुद्धि जन नहीं समझ पाते हैं, इसलिए कायक्लेशका कुछ विस्तृत स्वरुप कहूँगा ।। ३५२ ।। आषाढ, कात्तिक या फाल्गुन मास में शुक्ला पंचमीके दिन पहले जिन-पूजनको करके पुन: गुरुके पाद-मूलमें विधिको ग्रहण करके, अर्थात् उपवासका नियम लेकर, प्रतिमास एक क्षमणके द्वारा अर्थात् एक उपवास करके पाँच वर्ष और पाँच मास तक मुक्ति-सुखको चाहनेवाले श्रावकोंको अविच्छिन्न अर्थात् विना किसी नागाके लगातर यह पंचमीव्रत करना चाहिए ।। ३५३-३५४ ।। व्रत पूर्ण हो जानेपर जिनेन्द्र भगवानकी पाँच प्रतिमाएँ बनवाकर, तथा पाँच पोथियों (शास्त्रों) को लिखाकर अपनी शक्तिके अनुसार उनकी प्रतिष्ठाके लिए जो कुछ भी प्रतिष्ठाके योग्य उपकरण आवश्यक हों, वे सब प्रत्येक पाँच पाँचकी संख्यासे बनवाना चाहिए ।। ३५५-३५६ ।। हिरण्य-सुवर्ण सहित अर्थात् जिनके भीतर सोना, चाँदी, माणिक आदि रखे गये हैं, और जिनके मुख वस्त्रसे बँधे हुए हैं, ऐसे पाँच कलशोंको जिनेन्द्रवेदिकाके सामने रखकर, तथैव नानाप्रकारक पकवान और विविध फलोंको भी रखकर और चतुर्विध संघको यथायोग्य दान देकर देशविरत श्रावकोंको इस प्रकार व्रत उद्यापन विधि करना चाहिए ।। ३५७-३५८ ।। यदि कोई धन-हीन श्रावक उद्यापनकी विधि करनेके लिए समर्थ न हो, तो उसे विधिपूर्वक यत्नके साथ उपवास-विधि दुगुनी करना चाहिए।। ३५९ ।। यदि व्रत करते हुए बीचमें
१ ब. वुभंति । ध. जुज्झति । २ प. पुज्जा। ३ ध अविछिण्णा। ४ ध. उववासो। (१) आचाम्लं निविकृत्यकभक्त-षष्ठाष्टमादिकम् ।
यथाशक्तिश्च क्रियते कायक्लेशः स उच्यते ।। २०८ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org