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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६३ बारस य बारसीओ तेरह तह तेरसीओणायव्वा। चोइस य चोहसीओ पण्णारस पुण्णिमाओ य॥३७० उववासा कायवाजहुत्तसंखाकमेण एयासु। एसाणामेण विहि विष्णेया सुक्खसंपत्ती ।। ३७१ एयस्से संजायइ फलेण अन्मुदयसुक्खसंपत्ती। कमसो मुत्तिसुहस्स वि तम्हा कुज्जाप यत्तेण ।। ३७२ नन्दीश्वरपंक्तिव्रत-वर्णन काऊण अट्ट एयंतराणि रइयरणगेसुचतारि । दहिमुहसेलेसु पुणो अंजणजिणचेइए छठें॥३७३ गंदीसरम्मि दीवे एवं चउसु वि दिसासु कायव्वा । उववासा एस विहि णंदोसरपंति णामेण ॥३७४ जंकि पि देवलोए महड्डिदेवाण माणुसाण सुहं । भोत्तूण सिद्धिसोक्खं पाउणइ फलेण एयस्स॥३७५ विमानपंक्तिव्रत-वर्णन एयंतरोववासा चत्तारि चउहिसासु काऊण । छठें मज्झे एवं तिसट्टिखु तो विहिं कुज्जा॥३७६ पटुवणे णिढवणे छठें मज्मम्मि अट्ठयं च तहा। एस विही णायव्वा विमाणपंति ति णामेण ॥ ३७७ फलमेयस्से भोत्तण देव-मणुएसु इंदियजसुक्खं । पच्छा पावइ मोक्खं थुणिज्जमाणो सुरिदेहिं ।। ३७८ उद्देसमेत्तमेयं कीरइ अण्णं पिजं ससत्तीए। सुत्तुत्ततवविहाणं कायकिलेसुत्तितं विति ।। ३७९ जिण सिद्ध-सूरि-पाठय-साहूणं जं सुयस्स विहवेण । कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहाणं ॥ ३८० (१) तेरह, चतुर्दशीके चौदह और पूर्णमासीके पन्द्रह उपवास करना चाहिए । इस उपवास-विधिका नाम सौख्यसंपत्तिव्रत जानना चाहिए । इस व्रत-विधिके फलसे अभ्युदय-सुखकी संप्राप्ति होती है और क्रमसे मुक्तिसुखकी भी प्राप्ति होती । इसलिए प्रयत्नके साथ इस व्रतको करना चाहिए। ।। ३६८-३७२ ॥ नन्दीश्वर द्वीपमें एक दिशासम्बन्धी आठ रतिकर पर्वतोंमें विद्यमान जिन-बिम्ब सम्बन्धी आठ एकान्तर उपवास करके, पुन: चार दधिमुख नामक शैलोंमें विद्यमान जिनबिम्ब सम्बन्धी चार एकान्तर उपवास करके, पुन: एक अंजनगिरिस्थ जिनबिम्ब सम्बन्धी षष्ठभक्त अर्थात एक वेला करे । इस प्रकार चारों ही दिशाओं में उपवास करना चाहिए । इस उपवासविधिका नाम नन्दीश्वर पंक्ति व्रत है । इस व्रतके फलसे देवलोक में महद्धिक देवोंके जो कुछ भी सुख हैं और मनुष्योंके जितने सुख हैं, उन्हें भोगकर यह जीव सिद्धि-सुखको प्राप्त होता है ॥३७३-३७५।। चारों दिशाओं में स्थित चार श्रेणीबद्ध विमान सम्बन्धी चार एकान्तर उपवास करके, पूनः मध्यमें स्थित इन्द्रक विमान सम्बन्धी एक षष्ठभक्त अर्थात् वेला करे। इस प्रकार यह विधि तिरेसठ बार करना चाहिए। प्रस्थापन अर्थात् व्रत-प्रारम्भ करनेके दिन और निष्ठापन अर्थात् व्रत समाप्त होने के दिन वेला करे, तथा मध्यमें अष्टम भक्त अर्थाततेला करे। इस उपवासविधिका नाम विमान-पंक्ति व्रत जानना चाहिए।। ३७६-३७७॥ इस व्रत-विधानके फलसे यह जीव देव और मनुष्योंमें इन्द्रिय-जनित सुख भोगकर पीछे देवेन्द्रोंसे स्तुति किया जाता हुआ मोक्षको पाता है।। ३७८ ।। व्रतोंका यह उद्देशमात्र वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त अन्य भी सूत्रोक्त तप-विधानको जो अपनी शक्तिके अनुसार करता है, उसे आचार्योने कायक्लेश इस नामसे कहा है ।। ३७९ ।। अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान्, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंकी तथा शास्त्रका जो वैभवसे नाना प्रकार को पूजा की जाती है, उसे पूजन-विधान जानना चाहिए।।३८०। नाम, स्थापना, (१) गुरूणामपि पंचानां या यथाभक्ति--शक्तितः। क्रियतेऽनेकधा पूजा सोऽर्चनाविधिरुच्यते।२११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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