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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन अपायो हि सपत्नेभ्यो नृपस्यारक्षितात्मनः । आत्मानुजीविवर्गाच्च क्रुद्धलब्धविमानितात ॥२७६ तस्माद् रसदतीक्ष्णाद नपायानरियोजितान् । परिहत्य निरिष्टः स्वं प्रयत्नेन पालयेत् ।। २८७ स्यात् समञ्जसवृत्तित्वमप्यस्यात्माभिरक्षणे । असमञ्जसवत्तौ हि निजैरप्यभिभूयते ।। २४८ समञ्जसत्वमस्येष्टं प्रजास्वविषमेक्षिता । अनशस्यमवाग्दण्डपारुष्यादिविशेषितम् ।। २७९ ततो जितारिषड्वर्ग: स्वां वत्ति पालयन्निमाम् । स्वराज्ये सुस्थितो राजा प्रेत्य चेह च नन्दति ।।२८० समं समञ्जसत्वेन कुलमत्यात्मपालनम् । प्रजानुपालनं चेति प्रोक्ता वत्तिर्महीक्षिताम् ।। २८१ ततः क्षात्रमिम धर्म यथ क्तमनपालयन् । स्थितो राज्ये यशो धर्म विजयं च त्वमाप्नुहि ।। २८२ प्रशान्तधी: समुत्पन्नबोधिरित्यन शिष्य तम् । परिनिष्क्रान्तिकल्याणे सुरेन्द्ररभिपूजितः ।। २८६ महादानमयो दत्वा साम्राज्यपदमुत्सजन् । स राजराजो राजर्षािनष्क्रामति गृहाद् वनम् ।। २८४ धौरेयः पाथिवैः किञ्चित समरिक्षप्तां महीतलात। स्कन्धाधिरोपितां भयः सरेन्द्रभक्तिनिभरै।।२८५ आरूढः शिबिकां दिव्यां दीप्तरत्नविनिमिताम् । विमानवसति भानोरिवाऽऽयातां महीतलम् ।२८६ पुरस्सरेंषु नि.शेषनिरुद्धव्योमवोचिषु । सुरासुरेषु तन्वत्सु, सन्दिग्धाप्रमं नमः ।। २८७ अनूस्थितेषु सम्प्रीत्या पार्थिवेषु ससंभ्रमम् । कुमारमग्रतः कृत्वा प्राप्त राज्यं नवोदयम् ।। २८८ रुष्ट, लब्ध एवं अपमानित अपने ही अनजीवी वर्गसे विनाश हो जाता हैं ।।२७६॥इसलिए शत्रओंके द्वारा योजित, प्रारम्भ में सुखद, किन्तु परिणाममें अति दुखद अपायोंको दूरकर अपने इष्ट जनोंके द्वारा प्रयत्नके साथ अपनी रक्षा करना चाहिए ॥ २७७ ॥ इसके अतिरिक्त राजाको अपनी रक्षा करने में समजञ्जस वृत्तिवाला होना चाहिए, क्योंकि असमञ्जस वृत्तिवाला अपने स्वजनोसे भी पराभव को प्राप्त होता हैं ।।२७८॥ समस्त प्रजा पर पक्षपात-रहित समदृष्टि रखना, क्रूर-व्यवहार नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना और कठिन दण्ड नहीं देना आदि विशेषताओंसे युक्त समदीपनाको समञ्जसवृत्ति कहते है ॥ २७९ ॥ इस प्रकार जो राजा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरंग शत्रुओंको जीतकर और अपनी उपर्युक्त समञ्जस राजवृत्तिको पालन करता हुआ अपने राज्यमें स्थिर रहता है, वह इस लोक ओर परलोकमें आनन्द को प्राप्त करता है ॥२८०॥ पक्षपात-रहित समञ्जसवृत्तिके साथ कुलको मर्यादा पा लेना,बुद्धिकी रक्षा करना,अपनी रक्षा करना और प्रजाका भलिभाँतिसे पालन करना यह सव राजाओंकी वृत्ति कहलाती है।।२८१॥ अतएव हे पुत्र,इस क्षात्रधर्मको यथोक्त रीतिसे परिपालन करते हुए राज्यमें स्थिर होकर अपने यश धर्म और विजय को प्राप्त करो ॥ २८२ ॥ इस प्रकारसे पुत्रको अनुशासित कर वे प्रशान्त बुद्धि और प्रबोधको प्राप्त भगवान् परिनिष्क्रमण कल्याणकके समय देवेन्द्रोंके द्वारा पूजे जाते है।।२८३।। तदनन्तर महान् किमिच्छक दानको देकर साम्राज्य पदको छोडकर वे राजाधिराज राजर्षि वनको जानेके लिए घरसे निकलते हैं ।। २८४॥ जिस पालखी पर भगवान विराजमान होते है, उसे सर्व प्रथम मुख्य मुख्य राजा लोग महीतलसे उठाकर और अपने कंधों पर रखकर कुछ दूर ले जाते हैं, पुनः भक्तिसे भरे हुए इन्द्र लोग अपने कंधों पर रखकर चलते है ।। २.८५ ॥ जिस दिव्य पालखी पर भगवान् आरूढ होते है, वह देदीप्यमान रत्नों से निर्मित होती हैं, अतः महीतल पर आये हुए सूर्यके विमानके समान जान पडती है ।। २८६ ।। उस समय समस्त आकाश-मार्गको रोकते हुए और अपनी कान्तिसे आकाशमें सूर्यकी प्रभाका सन्देह उत्पन्न करते हुए सुर और असुर गण आगे चलते हैं ।। २८७ ।। राज्य को प्राप्त करनेसे नवीन भाग्योदयवाले कुमारको आगे करके आश्चर्य-चकित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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