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________________ श्रावकाचार-संग्रह अनुयायिनि तत्त्यागादिवमन्वी भवद्युतौ । निधीनां सह रत्नानां सन्दोहेऽभ्यर्णसंक्षये ॥ २८९ सैन्ये च कृतसन्नाहे शनैः समनुगच्छति । मरुध्दूतध्वजव्रातनिरुद्ध पवनाध्वनि ।। २९० ध्वनत्सु सूरतूर्येषु नृत्यत्यप्सरसां गणे । गायन्तीषु कलक्वाणं किन्नरीषु च मङ्गलम् ॥ २९१ भगवानभिनिष्क्रान्तः पुष्ये कस्मिंश्चिदाश्रमे । स्थितः शिलातले स्वस्मिँश्चेतसीवातिविस्तृते ॥ २९२ निर्वाणदीक्षयात्मानं योजयन्नभ्दुतोयः । कृराधिपैः सुतानन्दमचतः परयेज्यया ।। २९३ aise शेष विधिर्युक्तः केशपूजादिलक्षणः । प्रागेव स तु निर्णीतो निष्क्रान्तौ वृषमेशिनः ।। २९४ ( इति निष्क्रान्तिः । 1 ) परिनिष्क्रान्तिरेषा स्यात् क्रिया निर्वाणदायिनी । अतः परं भवेदस्य मुमुक्षोर्योगसम्महः ।। २९५ यदायं त्यक्त बाह्यान्तस्सङगो निःसङ्गमाचरेत् । स दुश्चरं तपोयोगं जिनकल्पमनुत्तरम् ।। २९६ तवास्य क्षपक श्रेणी मारूढस्योचिते पदे । शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धवातिकर्मघनाटवेः ।। २९७ प्रादुर्भवति निःशेषबहिरन्तर्म लक्षयात् । केवलाख्यं परं ज्योतिर्लोकालोकप्रकाशकम् ।। २९८ तदेतत्सिद्धसाध्यस्य प्रायुषः परमं महः | योगसम्मह इत्याख्यामनुधसे क्रियान्तरम् ।। २९९ ज्ञानध्यानसमायोगो योगो यस्तत्कृतो महः । महिमातिशयः सोऽयमाम्नातो योग सम्मह ॥ ३०० ( इति योगसम्महः । ) ततोऽस्य केवलोत्पत्तौ पूजितस्यामरेश्वरैः । बहि विभूतिरुद्भूता प्रातिहार्यादिलक्षणा ॥ ३०१ ५४ राजा लोक अति प्रीति से भगवान् के समीप अवस्थित रहते है ||२८|| भगवान् के द्वारा त्यागी जानेसे मन्दान्तिको प्राप्त हुई निधियोंका और रत्नोंका समूह उनके पीछे-पीछे आता है॥ २८९॥ वायुके द्वारा उड़ती हुई ध्वजाओंसे पवनका मार्ग (आकाश) अवरुद्ध करने वाली विशेष रूपसे सजी हुई सेना धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे चलती है ॥२९० । उस समय देव-दुन्दुभियोंके बजने पर, अप्सरागणके नृत्य करने पर, किन्नरियों द्वारा मांगलिक सुन्दर गीतोंके गाये जाने पर, भगवान् पालकीमें से निकलकर किसी पुण्यवान् आश्रममें अपने चित्तके समान अति विशाल शिलातल पर विराजमान होकर अपनी आत्माको निर्वाणकी दीक्षासे संयुक्त करते हैं, अर्थात् जिन दीक्षा लेते हैं । उस समय उस अद्भुत उदयवाले भगवान्‌को इन्द्रलोक आनन्दके साथ उत्तम सामग्री के द्वारा महान् पूजन करते हैं ।। २९१-२९३।। इस समय केशलुंच करना, पूजन करना आदि जो विधि कहनेसे शेष है, वह सब वृषभेश्वरकी दीक्षाके समय पहले ही वर्णन की जा चुकी हैं ।। २९४ || यह अडतालीसवीं निष्क्रान्तिक्रिया हैं यह निर्वाणको देनेवाली परिनिष्क्रान्ति क्रिया है । अब इसके पश्चात् उन मुमुक्षु भगवान् के योग-संग्रह नामकी क्रिया होती हैं ।। २९५ ।। जब वे भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर सर्व परिग्रहको छोडकर पूर्ण निःसंगताको धारण कर अति दुर्धर, जिनकल्पी अनुपम तपोयोगका आचरण करते हैं, तब क्षपकश्रेणी- पर आरूढ भगवान्‌ के उचित गुणस्थानरूप पदमें शुक्लध्यान रूपी अग्निसे घातिया कर्मरूपी सघन अटवीके जला देने पर समस्त बहिरंग और अन्तरंग मलोंके क्षयसे लोकालोकको प्रकाशक केवलज्ञान नामकी परम ज्योति प्रगट होती है ।। २९६-२९८ ।। इस प्रकार साध्यको सिद्ध करनेवाले ओर परम तेजको प्राप्त हुए उन भगवान् के योगसम्मह नामकी एक और क्रिया होती हैं ।। २९९ ।। ज्ञान और ध्यानके समायोगको योग कहते हैं और उस योगसे जो अतिशय महिमाशाली तेज प्रगट होता हैं, वह योगसम्मह कहलाता है ।। ३० ।। यह उनंचासवीं योगसम्महक्रिया है । तदनन्तर केवल ज्ञानकी उत्पत्ति होने पर अमरेन्द्रोंके द्वारा पूजित उन तीर्थकर भगवान् के प्रातिहार्यादि लक्षण बाली बाह्य विभूति प्रगट होती है ।। ३०१ ॥ दिव्य आठ प्रातिहार्यो का प्रगट होना, द्वादश प्रकारकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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