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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन प्रातिहार्याष्टकं दिव्यं गणो द्वादशधोदित: । स्तूपहावलीसालवलयः केतुमालिका ॥३०२ इत्यादिकामिमां भूतिमद्भुतामुपबिभ्रतः । स्यादाहन्त्यमिति ख्यातं क्रियान्तरमनन्तरम् ।। ३०३ (इति आर्हन्त्यक्रिया। ) विहारस्तु प्रतीतार्थो धर्मचक्रपुरस्सरः । प्रपञ्चितश्च प्रागेव ततो न पुनरुच्यते ॥ ३०४ (इति विहारक्रिया।) ततः परार्थसम्पत्त्यं धममार्गोपदेशनैः । कृततीर्थविहारस्य योगत्यागः परा क्रिया ।। ३० विहारस्योपसंहार: संहृतिश्च सभावनेः । वृत्तिश्च योगरोधार्था योगत्यागः स उच्यते ।। ३०६ यच्च दण्डकपाटादिप्रतीतार्थ क्रियान्तरम् । तदन्तर्भूतमेवातस्ततो न पृथगुच्यते ।। ३०७ ( इति योगत्यागक्रिया।) ततो निरुद्ध नि:शेषयोगस्यास्य जिनेशिनः । प्राप्तशैलेश्यवस्थस्य प्रक्षीणाघातिकर्मणः ॥ ३०८ क्रियानिवृति म परिनिर्वाणमयुषिः । स्वभावजनितामूलव्रज्यामास्कन्दतो मता ॥ ३०९ ( इति अग्रनिर्वृतिः ) इति निर्वाणपर्यन्ता: क्रियागर्भादिकाः सदा : भव्यात्मभिरनुष्ठेयाः त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात् ॥३१० यथोक्तविधिनताः स्युरनष्ठेया द्विजन्मभिः । योऽप्यत्रान्तर्गतो भेदस्तं वचम्युत्तरपर्वणि ॥ ३११ शार्दूलविक्रीडितम् इत्युच्चैर्भरताधिपः स्वसमये संस्थापयन् तान् द्विजान् सम्प्रोवाच कृती सतां बहुमता गर्भान्वयोत्थाः क्रियाः । सभाओंमें देव-मनुष्य और पशुगणका समवेतहोना,स्तूप,हावली,प्राकार-वलय और ध्वजमालिका आदि अद्भुत समवसरण विभूतिको धारण करनेवाले उन भगवान्के आर्हन्त्य नामसे प्रसिद्ध एक और क्रिया होती है ।। ३०२-३०३ ।। यह पचासवीं आर्हन्त्य क्रिया हैं । तत्पश्चात् धर्मचक्रको आगे करके भगवान्का जो विहार होता हैं,वह विहार नामकी क्रिया है। यह विहार जगत्प्रसिद्ध एवं सर्व विदित हैं,पहले ही विस्तारसे कहा जा चुका हैं, इसलिए उसे पुनः नहीं कहते है।।१०४॥ यह इक्यावनवीं विहार क्रिया हैं । इस प्रकार धर्ममार्गके उपदेश द्वारा विहार करनेवाले अरहन्तके परम पुरुषार्थ मोक्षकी सम्प्राप्तिके लिए योगत्याग नामकी श्रेष्ठ क्रिया होती है ॥३०५।' विहारका उपसंहार होना, समाभूमि (समवसरण) का विघटना, और योग-निरोधके लिएप्रवृत्ति होना यह योगत्याग कहलाता है ॥३०६।। दण्ड,कपाट आदि रूपसे प्रसिद्ध और सुप्रतीत केवलिसमुद्धातरूप क्रिया हैं वह इसी योगत्याग क्रियाके अन्तर्गत हैं, अतः उसे पृथक् नहीं कह रहे हैं ।।३०७ ।। यह वावनवीं योगत्याग किया हैं। तदनन्तर समस्त योगोंका निरोध करनेवाले.शैलेशी अवस्थाको प्राप्त अघातिया कोके क्षय कर्ता उन जिनेश्वर देवके स्वभाव-जनित ऊर्ध्वगतिको प्राप्त होकर परम निर्वाणको प्राप्त करते हुए अग्रनिर्वृति नामकी क्रिया होती हैं ।।३०८-३०९।।यह तिरपनवीं अग्रनिवृति त्रिया है । इस प्रकार गर्भाधान क्रियासे लेकर निर्वाणपर्यंन्त समुच्चयरूपसे सब क्रियाएँ तिरेपन है। भव्यात्मा पुरुषोंको इनका सदा अनुष्ठान करना चाहिए ।। ३१० ॥ द्विज लोगोंको उपर्युक्त विधिके अनुसार इन क्रियाओंका पालन करना चाहिए । इन क्रियाओंमें जो अन्तर्गत और भेद है, उसे आगेके पर्बमें कहेंगे ॥ ३११ ।। इस प्रकार उन पुणवान् महाराज भरतने द्विजोंको स्वसमय अर्थात् जैनमार्गमें स्थापित करते हुए गर्भाधानसे लेकर निर्वाण-गमन तककी सज्जनोंको सम्मान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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