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________________ ५६ श्रावकाचार - संग्रह गर्भाद्या: परनिर्वृतिप्रगमनप्रान्त स्त्रिपञ्चाशतं प्रारेमेऽथ पुनः प्रवक्तुमुचिता दीक्षान्वयाख्या: क्रिया: ।। ३१२ यस्त्वेताः द्विजसत्तमैरभिमता गर्भादिकाः सत्क्रियाः, भुत्वा सम्यगधीत्य भावितमतिर्जनेश्वरे दर्शने । सामग्रीमुचितां स्वतश्च परतः सम्पादयन्नाचरेद् भव्यात्मा स समग्रधोस्त्रिजगतीचूडामणित्वं भजेत् ॥ ३१३ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङ्ग्रहे द्विजोत्पत्तौ गर्भावयत्रियावर्णनं नाम अष्टत्रिंशत्तमं पर्व | 1011 तिरेपन गर्भान्वय क्रियाएँ कही । तत्पश्चात् कहनेके योग्य दीक्षान्वयाओं का कहना आरम्भ किया ।। ३१२॥श्रेष्ठ द्विजों द्वारा सन्मानीय इन गर्भाधानादि सत्-क्रियाओंको सुनकर और सम्यक् प्रकारसे उनका अध्ययन कर जो जिनेश्वरोक्त दर्शन में अपनी बुद्धिको संलग्न करता हैं और उचित सामग्रीको प्राप्त कर दूसरोंसे आचरण करता हुआ स्वयं भी इनका आचरण करता हैं, वह भव्यात्मा पुरुष पूर्ण ज्ञानी होकर तीन लोकके चूडामणिपनेको प्राप्त होता हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्तकर त्रिलोकके शिखर पर जा विराजता हैं ।। ३१३ ।। इस प्रकार भगवञ्जनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहमें द्विजोंकी उत्पत्ति और गर्भान्वय क्रियाओंका वर्णन करनेवाला अडतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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