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________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो मनुदीक्षान्वयक्रियाः । यास्ता निःश्रेयसोदश्चित्वारिंशस्थाष्ट च ॥१ भ्रूयतां भो द्विजन्मानो वक्ष्ये नैःश्रेयसीः क्रियाः । अवतारादिनिर्वाणपर्यन्ता दीक्षितोचिताः ॥ २ व्रताविष्करणं दीक्षा द्विधाम्नातं च तद्वतम् । महच्चाणु च दोषाणां कृत्स्नदेशनिवृत्तितः ।। ३ महावतं भवेत् कृत्स्नहिंसाद्यागोविजितम् । विरतिः स्थूहिसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् ।। ४ तदुन्मुखस्य या वृत्तिः मुमो दोक्षेत्यसौ मता। तामन्विता क्रिया या तु सा स्याद् दीक्षान्वया क्रिया ।५ तस्यास्तु भेवसङ्ख्यानं प्राग्निर्णीतं षडष्टकम् । क्रियते तद्विकल्पानामधुना लक्ष्मवर्णनम् ।। ६ तत्रावतारसंज्ञा स्यादाद्या दीक्षान्वयक्रिया । मिथ्यात्वदूषिते भव्ये सन्मार्गग्रहणोन्मुखे ।। ७ स तु संसृत्य योगीन्द्रं यक्ताचारं महाधियम् । गृहस्थाचार्यमथवा पृच्छतीति विचक्षणः ।। ८ बूत यूयं महाप्रज्ञा मह्यं धर्ममनाविलम् । प्रायो मतानि तीर्थ्यानां हेयानि प्रतिभान्ति मे ॥ ९ श्रौतान्यपि हि वाक्यानि सम्मतानि क्रियाविधौ । न विचारसहिष्णूनि दुःप्रणीतानि तान्यपि ॥१. इति षष्ठवते तस्मै व्याचष्टे स विदांवरः । तथ्यं मुक्तिपथं धर्म विचारपरिनिष्ठितम् ॥ ११ विद्धि सत्योद्यमाप्तीयं वचः श्रेयोऽनुशासनम् । अनाप्तोपशमन्यत्तु वचों वाङ्मलमेव तत् ।। १२ अथानन्तर सोहलवें मनु भरतमहाराजने उन द्विजोके लिए अन्तमें मोक्ष फल देनेवाली अङतालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहना प्रारम्भ किया ॥ १॥ वे बोले-हे द्विजो, मैं अवतारसे आदि लेकर निर्वाण तककी कल्याणकारिणी दीक्षान्वय क्रियाओंको कहता हूँ,सो सुनो।।२।। व्रतोके धारण करनेको दीक्षा कहते है और वे व्रत हिसादि दोषोंके सम्पूर्ण तथा एक देश त्याग करनेकी अपेक्षा महाव्रत और अणुव्रतके भेदसे दो प्रकारके माने नये हैं।। ३।। सूक्ष्म और स्थूल सभी प्रकारके हिंसादि पापोंका त्याग करना महाव्रत कहलता हैं और स्थूल हिंसादि दोषोंसे विरत होनेको अणुव्रत माना गया हैं ।।४।। उन व्रतोंके ग्रहण करनेके लिए उन्मुख हुए पुरुषकी जो प्रवृत्ति होती हैं,वह दीक्षा कहलाती है और उस दीक्षासे संयुक्त जो क्रियाएँ होती हैं, वे दीक्षान्वय-क्रियाएँ कही जाती हैं।॥५॥ उस दीक्षान्वयक्रियाके भेदोंकी संख्या अडतालीस हैं,जिनका कि निर्णय पहले कर आये हैं । अब उन भेदोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं ॥६'। उन दीक्षान्वय क्रियाओंमें पहली अवतार नामकी क्रिया है। मिथ्यात्वसे दुषित कोई भव्य पुरुष जब सन्मार्गको ग्रहण करनेके सन्मुख होता है,तब यह अवतार क्रिया की जाती हैं। ७॥ प्रथम ही वह विचक्षण भव्यपूरुष योग्य आचरणवाले महान् बद्धिशाली योगिराजके समीप जाकर, अथवा किसी गृहस्थाचार्यके समीप जाकर उनसे इस प्रकार पूछता है कि हे महाप्राज्ञ, आप मेरे लिए निर्दोष धर्मका स्वरूप कहिये, क्योंकि मुझे अन्य तीथिक लोगोंके मत प्रायः हेय प्रतीत होते है ॥८-९॥ धार्मिक क्रियाओंके करनेमें जो वेदोंके वाक्य प्रमाण माने जाते है, वे भी विचारको सहन नहीं कर सकते, अर्थात् ऊहापोह करने पर वे निःसार प्रतीत होते है,क्योंकि वे दुष्ट जनोंके द्वारा प्रणीत है ।।१०।। इस प्रकार पूछनेवाले उस भव्यपुरुषके लिए विद्वानोंमें श्रेष्ठ वे योगिराज अथवा गृहस्थाचार्य सत्ययुक्त, विचारसे परिपूर्ण एवं मोक्षके मार्गस्वरूप धर्मका व्याख्यान करते है ॥१शा वे कहते है-हे भव्य, तुम मोक्षका उपदेश देनेवाले आप्त कथित वचनको ही सत्य वचन समझो । अन्य वचन जो आप्त-कथित नही है, वे तो केवल वचन-मल ही है,सत्य नही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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