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________________ श्रावकाचार-संग्रह बिरागः सर्ववित् सार्वः सूक्तसूनृतपूतवाक् । आप्तः सन्मार्गदेशी यस्तदाभासास्ततोऽपरे ।। १३ रूपतेजोगुणस्थानध्यानलक्ष्मद्धिदत्तिभिः । कान्तता-विजयज्ञानदृष्टिवीर्यसुखामृतः ।। १४ प्रकृष्टो यो गणरेभिः चक्रिकल्पाधिपादिसू । समाप्त: स च सर्वज्ञः स लोकपरमेश्वरः ॥ १५ ततः श्रेयोऽथिना श्रेयं मतमाप्तप्रणेतकम् । अव्याहतमनालीढपूर्व सर्वज्ञमानिभिः ।। १६ हेत्वाज्ञायुक्तमद्वैतं दीप्तं गंभीरशासनम् । अल्पाक्षरमसन्दिग्धं वाक्यंस्वायंभवं विदुः ।। १७ इतश्च तत्प्रमाणं स्याद् श्रुतमन्त्रक्रियादयः । पदार्थाः सुस्थितास्तत्र यतो नान्यमतोचिता । १८ यथाक्रममतो ब्रमः तान्पदार्थान्प्रपञ्चतः । यैः संनिकृष्यमाणाः स्युः दुःस्थिता: परसूक्तयः ।। १९ वेदः पुराणं स्मृतयः चारित्रं च क्रियाविधिः । मन्त्राश्च देवतालिङ्गमाहाराद्याश्च शुद्धयः ।। २० एतेऽर्थाः यत्र तत्त्वेन प्रणीताः परमषिणा । स धर्मः स च सन्मार्ग: तदाभासाः स्युरन्यथा ॥ २१ श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥ १२ पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्स्यात् वधनिधि यत् । वधोपदेशि यत्तत्तु ज्ञेयं धूर्तप्रणेतृकम् ॥ २३ सावधविरतिवृत्तम् आर्यषट्कर्मलक्षणम् । चातुराश्रम्यवृत्तं तु परोक्तमसदञ्जसा ॥ २४ है ॥१२॥ जो वीतराग है, सर्ववेत्ता है, सब प्राणियोंका कल्याण करनेवाला हैं,सन्मार्गका उपदेशक हैं और जिसके वचन पूर्वापर विरोध-रहित,सत्य और पवित्र हैं,वह आप्त कहलाता हैं। उक्त लक्षणों से रहित सभी पुरुषोंको आप्ताभास या मिथ्याभाषी जानना चाहिए।।१३।।जो रूप, तेज, गुणस्थान, ध्यान, लक्षण, ऋद्धि, दान, सौन्दर्य, विजय, ज्ञान, दर्शन,वीर्य और सुखामृत इन गुणोंके द्वारा चक्रवर्ती और इन्द्रादिकोंसे भी उत्कृष्ट हैं,वही सर्वज्ञ हैं और वही सर्व लोकोंका परमेश्वर हैं।।१४-१५।। इसलिए कल्याणके चाहनेवाले लोगोंका इसी आप्त प्रणीत मत का आश्रय लेना चाहिए क्योंकि वह युक्तियोंसे अबाधित हैं और अपनेको सर्वज्ञ माननेवाले आप्ताभासियोंसे असंस्पृष्ट है,अर्थात् असर्वज्ञ लोग जिसका स्पर्श भी नहीं कर सके है ॥१६॥ जो युक्ति और आगमसे युक्त है,अद्वितीय है, जगत्प्रकाश है, गम्भीर शासनवाला है, अल्पअक्षर-संयुक्त है और असंदिग्ध है, ऐसे वचनको ही स्वयम्भू सर्वज्ञ-प्रणीत जानना चाहिए ॥१७॥ यतः सर्वज्ञ-प्रणीत मतमें शास्त्र,मंत्र,और क्रिया आदिक पदार्थ सुव्यवस्थित है और अन्य मतोंमें वे वैसे नहीं पाये जाते है, अतः सर्वज्ञ-प्रणीत मत ही प्रमाणभूत है ॥१८॥ हे भव्य,मैं यथाक्रमसे उन पदार्थोका विस्तार-पूर्वक निरूपण करता हूँ, क्योंकि उन तत्त्वोंके साथ भली-भाँति सन्निकर्षकी गई अर्थात् कसौटी कसी गई पर-मतकी सूक्तियाँ दोष-युक्तप्रतीत होने लगती है ॥१९॥ जिस मतमें वेद,पुराण,स्मृति, चारित्र, क्रियाओंकी विधि,मंत्र, देवता, लिंग (वेष) और आहार आदिकी शुद्धि,इन पदार्थोका यथार्थ रीतिसे परम-ऋषियोंने निरूपण किया है, वही धर्म है और वही सन्मार्ग है । जिन मतोंमें इससे अन्यथा कथन है,उन सबको धर्माभास और मार्गाभास जानना चाहिए॥२०-२१॥ सदाचार-प्ररूपक,द्वादशाङगरूप निर्दोष श्रुतज्ञान ही सच्चा वेद (ज्ञान) है । जो वाक्य हिंसाका उपदेश देनेवाला है, वह वेद नहीं है,उसे तो यमराजके वाक्य ही समझना चाहिए ॥२२॥पुराण और धर्मशास्त्र वे ही वाक्य माने जा सकते है,जो कि हिंसाके निषेध करनेवाले हों । जो पुराण या धर्मशास्त्र हिंसाके उपदेशक है,उन्हें तो धूर्त्तजनोंसे प्रणीत ही जानना चाहिए ॥२३॥ पापोंसे विरक्तिको चारित्र कहते है । वह चारित्र आर्यपुरुषों के करने योग्य पूजा,वार्ता आदि षट्कर्मस्वरूप है। दूसरे मतावलम्बियोंके द्वारा कहा गया चार प्रकारके आश्रमरूप चारित्र तो निश्चयसे असत् ही है ॥२४।। गर्भाधानसे लेकर निर्वाण तककी जो क्रियाएँ पहले कही गई है, वेही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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