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महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन
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क्रिया गर्भादिका यास्ता निर्वाणन्ताः पुरोदिता: । आधानादिश्मशानात्ता न ताः सम्यक् क्रियामता २५ मन्त्रास्त एव धर्म्याः स्युः ये क्रियासु नियोजिताः । दुर्मन्त्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥२६ विश्वेश्वरादयो ज्ञया देवताः शान्तिहेतवः । क्रूरास्तु देवता हेया यासां स्वाद् वृत्तिरामिषैः ॥ २७ निर्वाणसाधनं यत् स्वात्तल्लिङ्गं जिनदेशितम् । एणाजिनादिचिन्हं तु कुलिगं नद्विधैः कृतम् ॥ २८ स्थान्निरामिषभोजित्वं शुद्धिराहारगोचरा । सर्वङ्कषास्तु ते ज्ञेया ये स्युरामिष भोजनः ॥ २९ अहिंसाशुद्धिरेषां स्याद् ये निःसङ्गा बगालवः । रताः पशुबधे ये तु न ते शुद्धा दुराशयाः || ३० कामशुद्धिमता तेषां विकामा ये जितेन्द्रियाः । सन्तुष्टाश्च स्वदारेषु शेषाः सर्वे विडम्बका: ।। ३१ इति शुद्ध मतं यस्य विचारपरिनिष्ठितम् । स एवाप्तस्तदुनीतो धर्मः श्रेयो हितार्थिनाम् ।। ३२ श्रुत्वेति देशनां तस्माद् भग्योऽसौ देशिकोत्तमात् । सन्मार्गे मतिमाधत्ते दुर्मार्गरतिमुत्सृजन् ।। ३३ गुरुजनयिता तत्त्वज्ञान गर्भः सुसंस्कृतः । तदा तत्रावतीर्णोऽसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ॥ ३४ अवतार for stiषा गर्भाधानवदिष्यते । यतो जन्मपरिप्राप्तिरुभयत्र न विद्यते ।। ३५
ततोऽस्य वृत्तलाभः स्यात् तदैव गुरुपादयोः । प्रणतस्य व्रतव्रातं विधानेनोपसेदुषः ।। ३५
इत्यवतारक्रिया |
इतिवृत्तलाभ: सच्ची क्रियाएँ है । इनके अतिरिक्त गर्भ से लेकर श्मशान तककी जो क्रियाएँ अन्य लोगोंने कही है, वे सच्ची क्रियाएँ नहीं है ॥२५॥ जो गर्भाधानादि क्रियाओंमें प्रतिपादित उपयुक्तमंत्र है, वे धार्मिक मंत्र है। किन्तु जो प्राणियोंके मारने में प्रयुक्त मंत्र हैं, उन्हें तो दुर्मन्त्र ही समझना चाहिए ॥ २६ ॥ शान्ति करनेवाले विश्वके ईश्वर तीर्थंकर आदि ही सच्चे देवता समझना चाहिए। किन्तु जिनकी वृत्तिमांस से है, वे क्रूर देवता हैं, अतः उनका परित्याग करना चाहिए ||२७|| जो साक्षात् निर्वाणका कारण है, ऐसा जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थपना ही सच्चा लिंग हैं। इसके अतिरिक्त मृग, व्याघ्र आदिकेचर्म-चिन्हवाले लिंग तो
लिंग ही है, क्योंकि वे कुलिंगियोंके द्वारा बनाये गये हैं ||२८|| मांस-रहित भोजन करना ही आहारfare शुद्धि कहलाती हैं । मांस भोजी हैं, उन्हें तो सर्व-भक्षी हिंसक या कषायी जानना चाहिए ॥२९॥ अहिंसा-शुद्धि उन्हीं पुरुषोंके होती हैं, जो परिग्रह - रहित और दयालु हैं । किन्तु जो पशु वध में तत्पर रहते हैं, वे दुष्ट अभिप्रायवाले शुद्ध नहीं है ।। ३०11 जो काम - विकारसे रहित जितेन्द्रिय पुरुष है और जो अपनी स्त्रियों में सन्तुष्ट हैं ऐसे मुनियों और गृहस्थोंके काम-विषयक शुद्धि मानी गई है। इनके अतिरिक्त शेष सर्व मनुष्य ब्रह्मचर्यकी विडम्बना करनेवाले है ।। ३१ ।। इस प्रकार के विचारोंसे परीक्षित किया गया जिसका मत शुद्ध हो, वही पुरुष आप्त कहलाने के योग्य है और उसीके द्वारा कहा हुआ धर्म हितके चाहनेवाले लोगोंको कल्याणकारी हो सकता है ||३२|| उत्तम उपदेशकसे इस प्रकारकी धर्म देशनाको सुनकर वह भव्य पुरुष कुमार्गके प्रेमको छोडता हुआ सन्मार्ग में अपनी बुद्धिको लगाता है । ३३ ।। उस समय गुरु ही उसका जनक है और तत्त्वज्ञान ही सुसंस्कृत गर्भ है । वह भव्यात्मा धर्मरूप जन्मके द्वारा उस तत्त्वज्ञानरूपी गर्भ में अवतीर्ण होता है ॥ ३४ ॥ इस भव्य पुरुषकी यह अवतार क्रिया गर्भाधानके समान मानी जाती है, क्योंकि जन्मकी प्राप्ति न तो गर्भाधानक्रिया में है और न अवतार क्रियामें ही है ||३५|| भावार्थ- जीव सदा ही सत्स्वरूप है अतः उसका कभी वस्तुतः जन्म होता ही नहीं है । यह पहली अवतार किया है । तदनन्तर उसी समय गुरुके चरणों में नमस्कार कर विधिपूर्वक व्रतोंके समुदायको ग्रहण करनेवाले उस भव्यात्माके वृत्तलाभ नामकी क्रिया होती है ॥ ३६ ॥ यह दूसरी वृत्तलाभ है ।
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