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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
अवहितमनाः सद्योत्सङ्गं निधानमिवोत्तमं
नयति हृदयं यः सम्यक्त्वं शशाङ्ककरोज्ज्वलम् । अमितगतयः क्षिप्रं लक्ष्म्यः श्रयन्ति तमादृता
निरुपमा गुणाः कान्तं कान्तं स्वयं प्रमदा इव । ९० इत्युपासकाचारे द्वितीयः परिच्छेदः
तृतीयः परिच्छेदः
जीवाजीवादितत्त्वानि ज्ञातव्यानि मनीषिणा । श्रद्धानं कुर्वता तेषु सम्यग्दर्शनधारिणा ॥ १ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया मुक्तसंसारिभेदतः । अनादिनिधनाः सर्वे ज्ञानदर्शनलक्षणाः ।। २ तत्र क्षताष्टकर्माणः प्राप्ताष्टगुणसम्पदः । त्रिलोकवेदिनो मुक्तास्त्रिलोका प्रनिवासिनः ।। ३ अनन्तरेषदूनांगसमानाकृतयः स्थिराः । आत्मनीनजनाभ्यर्च्य भाविनं कालमासते ॥ ४ संसारिणो द्विधा जीवाः स्थावराः कथितास्त्रसाः । द्वितीयेऽपि प्रजायन्ते पूर्णापूर्णतया द्विधा ॥ ५ आहारविग्रहाक्षानवचोमानसलक्षणम् । पर्याप्तीनां मतं षट्कं पूर्णापूर्णत्वकारणम् || ६ चतस्रः पञ्च षड्ज्ञेयास्तेषां पर्याप्तयोऽङिगनाम् । एकाक्ष बिकलाक्षाणां पञ्चाक्षाणां यथाक्रमम् ॥७
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मिथ्यारूप ही रहती है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ॥ ८९ ॥ जो मनुष्य सावधान चित्त होकर चन्द्रकिरणोंके समान उज्ज्वल सम्यक्त्वको घरके मध्य में स्थित निधि ज्यों अपने हृदय में धारण करता हैं उस मनुष्यका अपरिमित ज्ञानवाली और अनुपम गुणोंको धारण करनेवाली लक्ष्मियाँ शीघ्र ही आदरपूर्वक आश्रय लेती है । जैसे कि सुन्दर पतिको उत्तम स्त्रियाँ स्वयं प्राप्त होती है ।। ९० ।
इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचार में द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ ।
सम्यग्दर्शनके धारक मनीषी पुरुषको जीव, अजीव आदि तत्त्वोंका श्रद्धान करते हुए उन्हें सम्यक् प्रकारसे जानना चाहिये || १ || उन सात तत्त्वों में जीव मुक्त और संसारीके भेदसे दो प्रकार से जानना चाहिये। ये सभी जीव अनादिनिधन हैं, अर्थात् आदि अन्तसे रहित है और ज्ञान-दर्शन लक्षणवाले हैं ||२|| उनमें जो मुक्त जीव है, वे अष्टकर्मोंसे रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंकी सम्पदाको प्राप्त हैं, तीनों लोकोंके ज्ञाता है और लोकके अग्र भाग पर निवास करते हैं ॥ ३ ॥ वे मुक्त जीव अन्तिम शरीरसे कुछ कम समान आकारके धारक हैं, स्थिर हैं, आत्म- हितैषी जनोंसे पूज्य हैं और आगामी अनन्त काल तक इसी स्वरूपसे अवस्थित रहेंगे || ४ || संसारी जीव दो प्रकारके कहे गये है - त्रस और स्थावर । ये दोनों ही प्रकारके जीव पर्याप्त और अपर्याप्तरूपसे दो प्रकार के होते हैं ||५|| आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन लक्षणवाली ये छह पर्याप्तियाँ उनके पर्याप्त और अपर्याप्तपनेकी कारण मानी गई हैं ||६|| भावार्थ - जिनके अपने योग्य पर्याप्तियोंकी पूर्णता होती हैं, वे पर्याप्त जीव कहलाते हैं और जिनके पूर्णता नहीं होती है, वे अपर्याप्त जीव कहलाते हैं । उन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय प्राणियोंके
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