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________________ शीलसप्तकवर्णनम् मत्तो हिनस्ति सर्व मिथ्या प्रलपति विवेकविकलतया । मातरपि कामयते सावद्यं मद्यमत एव ।। १८ ।। सामायिकः सन्ध्यात्रयेऽपि भुवनत्रयस्वामिनं वन्दमानो वक्ष्यमाणव्युत्सर्गतपसि कथितक्रमेण द्विनिषण्णं यथाजातं द्वादशावर्तमित्यपि । चतुनंति त्रिशुद्धं च कृतिकर्म प्रयोजयत् ॥ १९ ॥ अस्य सामायिकस्यानन्तरोक्त शीलसप्तकान्तर्गतं सामायिकं व्रतं व्रतिकस्य शीलं भवतीति । प्रोषधोपवासः मासे मासे चतुर्ष्वपि पर्व दिनेषु स्वकीयां शक्तिमनिगृह्य प्रोषधनियमं मन्यमानो भवतीति व्रतिकस्य यदुक्तं शीलं प्रोषधोपवासस्तदस्य व्रतमिति । २५५ सचित्तव्रतो दयामूर्तिर्मूलफलशाखाकरी र कन्दपुष्पबीजादीनि न भक्षयत्यस्योपभोगपरिभोग परिमाणशीलवतातिचारो व्रतं भवतीति । भक्तव्रता रात्री स्त्रीणां भजनं रात्रिभक्तं तद् व्रतयति सेवत इति रात्रिव्रतातिचारा रात्रिभवतव्रतः दिवाब्रह्मचारीत्यर्थः । मद्यसे उन्मत्त पुरुष सब जीवोंको मारता हैं, असत्य प्रलाप करता है और विवेक शून्य हो जानेसे अपनी माताके साथ भी काम सेवन करना चाहता है । अतएव मद्य सेवन सर्ब पाप कार्योसे भरा हुआ हैं ।। १८ ॥ ( इस प्रकार व्रत प्रतिमाका वर्णन किया । ) अब सामायिक प्रतिमाका वर्णन करते हैं - प्रात. मध्यान्ह और सायंकाल, इन तीनों ही सन्ध्याओं में तीन भुवनके स्वामी जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करते हुए आगे कहे जानेवाले व्युत्सर्ग तप कथितक्रमसे सामायिक करना चाहिए । वह क्रम इस प्रकार है - सामायिक खड़े होकर या बैठकर इन दो आसन से करे । उस समय यथाजात रूप रहे, बारह आवर्त्त करे और चार नमस्कार करे । इस प्रकार सामायिकका कृतिकर्म मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक करे ||१९|| सात शीलोंके अन्तर्गत सामायिक व्रत प्रतिमाधारीके शील (अभ्यास) रूप है और वही तीसरी सामायिक प्रतिमाधारीके व्रत रूपमें है । प्रत्येक मास में जो चार पर्व होते हैं, उन चारों ही पर्व दिनोंमें अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर प्रोषधोपवास करनेका नियम करना चौथी प्रोषधप्रतिमा है । व्रत प्रतिमाधारीके यह प्रोषधोपवास शीलरूप में है और इस प्रतिमावालेके वह व्रतरूपमें हैं । पाँचवी सचित्तप्रतिमाका धारी दयामूर्ति होता हैं, अत: वह मूल, फल, शाक, शाखा, कैर, कन्द, पुष्प और बीजादिक सचित्त वस्तुओं को नहीं खाता हैं । उपभोगपरिभोगपरिमाण शीलव्रतके जो सचित्ताहार आदि अतीचार हैं, उनका त्याग ही इस प्रतिमावालेके व्रतरूप हो जाता हैं । छठीं प्रतिमाका नाम रात्रिभक्तिव्रत है। रात्रिमें ही स्त्रियोंके सेवन करनेका व्रत लेना और दिनमें ब्रह्मचारी रहनेका नियम करना रात्रि भक्तव्रत प्रतिमा हैं । इस प्रतिभाका धारक रात्रिभोजनव्रत के अतीचारोंका त्यागी होता हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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